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‘तुझे शत-शत नमन है’

‘तुझे शत-शत नमन है’

नमन है! नमन है!
तुझे-
तुझे शत – शत नमन है!
हे चित्रांश गौरव,
हे युग श्रेष्ठ –
साहित्य की सच्ची पहचान!
तुझे नमन है..!

निष्पक्ष, निर्भेद, निर्विवाद-
स+ हित को समेटे –
दलित, किसान, सर्वहारा
महिला, अछूत, सर्व वर्गों की
पीड़ाओं को लपेटे-
सृजा तुमने साहित्य।

कहानी, उपन्यास,
काव्य,लेख, संस्मरण…
साहित्य की हर विधाओं को
तूने किया वरण।

किस्सागोई की गलियों से निकाल
तूने कहानी को
यथार्थ का परिधान पहनाया।
कथा साहित्य का किया विकास
हिन्दी को विविध रूपों में
सजाया…

क्या कहूँ तुम्हें –
कहानीकार, कथाकार
उपन्यास सम्राट, या
सभी विशिष्टताओं से पूर्ण
साहित्यकार..?

युगद्रष्टा, युगस्रष्टा या
युग निर्माता…?
शब्दों के चित्रकार…
भावों के कलाकार?
तुम्हारे तो हर शब्द बोलते हैं
भाव पीड़ाओं के भेद खोलते हैं…!!

सच कहना –
क्या तुमने वह सब कुछ जिया –
जो तुम लिखते हो?
विद्रुपताओं का जहर पिया –
जो अपनी कहानी के पात्रों में –
महसूसते हो?

तुमने न केवल युग की पीड़ाओं को
किया अभिव्यंजित
वरन्
संघर्ष की क्रांति भी छेड़ी,
समाधान की राहें भी उकेरी।
तुम न केवल कल थे,
आज भी हो और कल भी रहोगे!

गरीब दलित बच्चियों की
शैक्षणिक, विकासोन्मुख –
वर्जनाओं में…
नारियों की विविध यातनाओं में…
किसानों की भूखी अतृप्त –
आत्माओं में – –
आज भी कहीं न कहीं तुम हो…!

आज भी कोई निर्मला
दहेज व अनमेल
ब्याह के दंश झेल रही है।
मजदूरों, किसानों गरीबों की
बहु – बेटियाँ
कर्ज, ब्याज, सूद के बहाने –
महाजनों से रौंदी जाकर
दाने- दाने को तरसती –
मौत से खेल रही है..!

हे कलम के जादूगर,
कालजयी साहित्य सृजक-
तुम्हारी लेखनी
कल आज और कल पर
भी भारी है…

हे युग शिरोमणि,
बहुआयामी साहित्य सर्जक,
लक्ष्मी से उपेक्षित –
सरस्वती के वरदान,
अभिवर्द्धक!
राष्ट्र प्रेमी, क्रांतिदूत
वाराणसी के लमही गाँव के सपूत!

31 जुलाई 1880 को लिया जन्म
अक्टूवर 1936
मात्र् 56 वर्ष की आयु में
हुआ तेरा अवसान!

हे शब्द साधक,
कलम के सिपाही!
एक काल विशेष ने
तेरे नाम का दीप जलाया,
– -1906से 1936 तक
प्रेमचंद युग कहलाया…!

गरीबी के क्रूर पंजों में सिमटा
क्षयग्रस्त तेरा शरीर
दिनोंदिन क्षय होता गया…
रह गया अधूरा ” मंगलसूत्र”
शब्दों का जादूगर खोता गया
वक्त ने सहेज रखी तेरी कृतियां
ससम्मान /

तेरी लेखनी तो सबने देखी,
पर, किसने देखी तेरी पीड़ा…
तेरा संघर्ष, तेरी गरीबी ..?
आज तेरे नाम को भँजाने,
लोग बन रहे तेरे दीवाने
तेरे अपने… तेरे करीबी…!

कलफदार कुर्ते से झाँकती फटी बनियान
फटे जूते में सेघिसते तेरे पाँव
भले ही घायल हों –
मगर कम न हुई –
तेरी लेखनी की धार…!

जी लेता है हर पाठक –
तेरे पात्रों को उसकी समस्याओ
तेरी कहानी की विविधताओं को
विश्व साहित्य का प्रतिनिधित्व करता तेरा साहित्य –
देशकाल की सीमाओं से परे है..

डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव
पटना बिहार

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