लघुकथा: संवेदना शून्य
लघुकथा: संवेदना शून्य
“पीयूष! कहाँ जा रहा है तू?” बड़ी बहन पूजा ने पूछा।
“टोक दिया न! इस घर में हर कोई मुखिया बनना चाहता है। अब पापा जी नहीं रहे तो पीयूष ही इस घर के मुखिया हैं।”पीयूष की पत्नी दीप्ति बोली।
” हाँ! हाँ! तो मैंने कब कहा कि पीयूष मुखिया नहीं है। मैं तो बस यह कह रही थी कि राखी बँधवा कर चले जाना।”पूजा ने कहा।
“दीदी! वह क्या है न कि दीप्ति का भाई इंतजार कर रहा है राखी बँधवाने के लिए और दीप्ति उसे राखी बाँधे बिना कुछ खाती नहीं है तो मैं दीप्ति को उसके मायके ले जा रहा हूँ।” पीयूष ने जवाब दिया।
“पर भाई! भूखी तो मैं भी हूँ और तू जानता है कि तुझे राखी बाँधे बिना मैं पानी भी नहीं पीती।” पूजा की आवाज भर्रा गई।
“ओफ्फोह! दीदी! छोड़ो भी इन बातों को। तुम्हें तो आदत है पर दीप्ति बहुत नाज़ुक है। वह भूख बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। तुम राखी बाद में बाँध लेना। चलो! दीप्ति।” पीयूष बैग उठाकर बाहर निकल गया तो पीछे-पीछे दीप्ति भी चल दी।
कुर्सी पर बैठी बूढी माँ की आँखों से आँसू टपककर गालों पर गिर रहे थे और पूजा संवेदनाशून्य भाई को जाते देख
भौंचक्की खड़ी रह गई।
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ ,उत्तर प्रदेश