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ग़ज़ल

ग़ज़ल

चमकती धूप में अपने,बदन को हम जलाते हैं।
बड़ी मुश्किल से इस मिट्टी को हम सोना बनाते हैं।।

लुटा कर जान उल्फत में,मिली थी यार रुसवाई,
ज़रा सी बात में अपने,हमी से रूठ जाते हैं ।।

फसल उगती नहीं ऐसे,बुआई में पसीने की,
कई बूंदे मिलाकर हम,इसे गुलशन बनाते हैं।।

समर्पण भी हमारा है,वतन भी ये हमारा है,
इसे खुशहाल रखने को,नये सपने सजाते हैं।।

मुसीबत की चली आँधी, कहीं पर बाढ़ का खतरा,
कभी सावन कभी भादों,कभी मातम मनाते हैं।।

हमारा हौसला देखा , खुदा ने भी झुकाया सर,
छुपा कर दर्द हम अपना,तुम्हें हँसना सिखाते हैं।।

चमन अपना वतन अपना गगन अपना ज़मी अपनी,
तुम्हारे ही हवाले अब, इसे हम छोड़ जाते हैं ।।

सभी का साथ दानिश को,मिला होता ज़माने में,
कसम से फिर नहीं मरते,सबब वो ही बताते हैं।।

विजय मिश्र दानिश
स्टेज, टीवी, रेडियों, फ़िल्म कलाकार लेखक निर्देशक,

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