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गजल।

122 122 122 122
कभी उसने नजरें चुराई नहीं थी,
उन्हें थी मुहब्बत जताई नहीं थी।।

चले दूर मुझसे जमाने के कारण,
लगी चोट दिल पे बताई नहीं थी।।

मिलकर कदम साथ चलने का वादा,
मगर पास मंजिल भी आई नहीं थी।।

भरोसा था मुझको सहारा मिलेगा,
मगर उनकी उल्फत हमारी नहीं थी।।

फिसलते रही जिंदगी रेत सी जो,
कभी प्रीत उसने दिखाई नहीं थी।।

बड़े हौसलें थे कभी तुम मिलोगे,
तुम्हें दिल लगाने की फुर्सत नहीं थी।।

हवाओं का झोंका उड़ा ले गया सब,
मोहब्बत तुझे रास आई नहीं थी।।

है बिखरी हुई अब मुहब्बत की कसमें,
कहानी जो अपनी सुनाई नहीं थी।।

– पूनम सिंह, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

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