तब, तू बड़ी याद आती है, माँ!
जब, मुझे डर लगता है-
इस दुनिया से…,
लोगों से…,
दिन से, रात से, सुबह से, शाम से,
तब, तू बड़ी याद आती है, माँ!
मैं, सहम जाता हूँ-
हर गली का अंधेरा देखकर,
गली में बैठा कुत्तों का झूंड़,
मुझे, अकेला पाकर पकड़ लेना चाहता है;
तब, तुम्हारी गोद बहुत याद आती है, माँ!
दिन की आग बरसाती धूप,
बेरहम बनकर मुझे जलाने लगती है,
लोगों की खतरनाक नज़रें
मुझको, जब खा जाना चाहती है;
तब, तुम्हारा आंचल बहुत याद आता है, माँ!
काम के बोझ से थका-हारा,
जब, मैं लौटकर घर आता हूँ,
समस्याओं के चक्रव्यूह,
और जिम्मेदारी की चिंताएँ,
जब, मुझको सोने नहीं देती;
तब, तुम्हारी लोरी बड़ी याद आती है, माँ!
दुनिया के इस खेल में,
जब, मैं हार जाता हूँ,
जीवन की चालें,
जब, मुझको समझ नहीं आती;
तब, तेरा पीठ तपतपाना बेहद याद आता है, माँ!
हर पीड़ा, दर्द, तकलीफ़ में,
जब, मैं कराह रहा होता हूँ,
दुनिया के सारे भूत,
जब, मुझे डराने में लगे होते है;
तब, तू बड़ी याद आती है, माँ!
तब, तू…।
अनिल कुमार केसरी
भारतीय राजस्थानी