प्रभु श्री राम के पूर्वजों का वर्णन।
प्रभु श्री राम के पूर्वजों का वर्णन।
ब्लॉग प्रेषक: | डा. अभिषेक कुमार |
पद/पेशा: | साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक |
प्रेषण दिनांक: | 21-01-2024 |
उम्र: | 34 |
पता: | ठेकमा, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश |
मोबाइल नंबर: | 9472351693 |
प्रभु श्री राम के पूर्वजों का वर्णन।
प्रभु श्री राम के पूर्वजों का वर्णन।
©आलेख: डा. अभिषेक कुमार
सुर्यवंश की कथा विस्तार से कहना इस पटल से संभव नहीं है क्यों कि विस्तार पूर्वक सूर्यवंश की कथा का वर्णन करना लगातार सौ वर्षों में भी संभव नहीं है अतः अति संक्षेप में वर्णन करती हूँ। मैं अयोध्या हूं..! सृष्टि के मालिक भगवान श्रीमान नारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा जी का जन्म, ब्रह्मा जी के पुत्र मरीचि, के पुत्र कश्यप, कश्यप जी के बेटा विवस्वान सूर्य जिनसे आगे चलकर चला सूर्यवंश, विवस्वान सूर्य के पुत्र श्राद्धदेव मनु जिनकी श्रद्धा नामक पत्नी और संतान प्राप्ति से वंचित, पुत्रयेष्ठि यज्ञ करवाया कुलगुरु वशिष्ठ जी ने। रानी जी के इच्छानुसार बिटिया का जन्म हो गया। पर राजा वंशवृद्धि के लिए चिंतित हो गए और कहा मुझे तो बेटा चाहिए था फिर वशिष्ठ जी ने उस बिटिया को अपने दिव्य शक्ति से बेटा बना दिया। बाद में वैवस्वत मनु महाराज के दस बेटा हुए जो इस प्रकार है:- शर्याति, नभग, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, और पृषध। इन दस पुत्रो से ही सुर्यवंश का विस्तार हुआ।
सर्याति नामक जो पुत्र थें उनकी बेटी सुकन्या हुई जो अनजाने में धोखे से ध्यान योग के अवस्था में चमन मुनि का नेत्र फोड़ दिया तो उसके पिता राजा ने चमन मुनि से ही विवाह कर दिया। समयोपरांत चमन मुनि ने अश्विनी कुमार के प्रभाव से नवयौवन प्राप्त कर लिया था। इन्हीं शर्याति जी के वंश में रेवत हुए इनके सौ पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र था कपुदनी इनकी बेटी थी रेवती जिनका बाद में विवाह बलराम जी के साथ हुआ था।
वैवस्वत मनु महाराज के जो दूसरे बेटे थें नभग उनके बेटा हुए नभाग और उनके बेटा हुए परम भागवत श्री अमरीश जी महाराज। अमरीश जी परम वैष्णव, भगवान के परम प्रेमी भक्त। सप्तद्वीप वसुंधरा के अधिपति हो कर भी ठाकुर जी की भोग के लिए चक्की पर स्वयं ही आटा पीसना, सम्राट होकर मंदिर की साफ-सफाई, झाडू-पोंछा, धुलाई खुद अपनी हाँथो से करना किसी दास-दासी का कोई सहयोग नहीं। ठाकुर सेवा में तथा प्रति क्षण उस परमपिता परमेश्वर की ही चिंतन करना कानो से सैदव उनकी कथा सुनना, मुख से प्रभु के सदैव गुणानवाद करना। एक बार चाकी चलाते पसीना आ रहा था अचानक दिव्य मधुर सुगंध के साथ शीतल हवा के झोंका बदन से टकराई, पीछे मुड़ के अम्बरीश जी महाराज ने देखा तो स्वयं ठाकुर जी अपने पीताम्बर से हवा कर रहे हैं तो अम्बरीश जी महाराज ने दौड़कर चरणों से लिपट गए और कहा प्रभु यह क्या लीला है..? हमतो आपके सेवक दास है इस प्रकार से आप हमारी सेवा करेंगें..? भगवान बोले तुम इतना बड़ा सम्राट होकर मेरे लिए चाकी चला रहा है तो क्या मैं तुम्हारे लिए हवा भी नहीं कर सकता..! ऐसे भगवान का स्वभाव है भक्तवत्सल यदि भगवान से कोई आज कलिकाल में भी प्रेम करे तो निःसंदेह सृष्टि के सामर्थवान, शक्तिशाली, वैभवशाली व्यक्ति बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। अति प्रसन्न होकर भगवान ने श्री अम्बरीश जी को अपना सुदर्शन अस्त्र दे दिया की कोई आपत्ति-विपत्ति आये तो मेरा सुदर्शन तुम्हारा सदैव रक्षा करेगा। जब अम्बरीश जी से नाराज अति क्रोधित दुर्वासा ऋषि के जटा से उत्पन्न भयंकर कृत्या ने जब विकराल मुख खोलकर राजा के खा जाने दौड़ी तो तो तुरंत शुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दी और ऋषि दुर्वासा के पीछे लग गया। कैलाश पर भगवान शिव जी एवं ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी से मदत न मिलने के कारण तुरंत ऋषि दुर्वासा पहुँचे विष्णुलोक वहाँ उन्होंने भगवान नारायण से कहा मुझे रक्षा कीजिये अपनी सुदर्शन से तो भगवान नारायण ने भी अपना हाँथ खड़ा कर दिया और कहा कि हम भी सामर्थ्य नहीं है आप जाइये उसी वैष्णव के पास जिनका आप अपराध किये हैं। ऋषि दुर्वासा भगवान नारायण के बात सुनकर भवचक्का रह गए और तुरंत अम्बरीश जी महाराज के पास गए तो अम्बरीश जी ऋषि दुर्वासा के चरणों में लोट-पोट हो गए और बोले भोजन पर जो आपको निमंत्रण दिया था पिछले एक वर्ष से अन्न ग्रहण नहीं किया हूँ केवल जल पीकर व्रत खोल लिया था क्यों कि तिथि निकल रही थी। ऋषि दुर्वाशा जी के होश उड़ गए कि बिना वास्तविक कारण जाने इतना बड़ा क्रोध कर लिया। फिर अम्बरीश जी ने सुदर्शन को शांत कराया तब ऋषि दुर्वासा ने मन ही मन कहा कि आपके चारनाश्रित भक्तों की महिमा आज देख लिया प्रभु, तदुपरांत अम्बरीश जी ऋषि दुर्वासा को प्रीतिपूर्वक भोजन ग्रहण करया। तात्पर्य यह है कि जब कोई भक्त प्रभु को सर्वस्व आत्म निवेदन कर देता है तो उसकी सारी जिम्मेदारी भगवान अपनी हाँथ में ले लेते हैं यह प्रभु की प्रतिज्ञा है।
इन्ही के पावन वंश में आगे चलकर युवनाश्व हुए जिन्होंने मंत्र पढ़े हुए जल को पी लिया था इसलिए युवनाश्व के उदर से मान्धाता का जन्म हुआ। मान्धाता के वंश में सत्यव्रत हुए और सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चंद्र हुए जिन्होंने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित किये तथा इनके कर्तव्यनिष्ठा के महान गाथा है। राजा हरिश्चंद्र के सत्य धर्म की ख्याति पूरे ब्रह्मांड में फैल गई जिससे देवताओं के राजा इंद्र को नागंवार लगा उन्होंने महर्षि विश्वामित्र से राजा हरिश्चंद्र से परीक्षा लेने को आग्रह किये। परीक्षा में अपना सर्वस्त्र राज-पाठ दान कर स्वर्ण मुद्राएं दान हेतु पत्नी तारा एवं पुत्र रोहित तथा स्वयं को बेच कर धर्म की रक्षा की। कहाँ अयोध्या के राजा जो काशी के शमशान घाटों में चौकीदार की तथा रानी पत्नी ब्राह्मण के घर में दासी का कार्य। परीक्षणोपरांत उनके पुत्र रोहित भी पुनर्जीवित हो गए एवं सत्य धर्म की जीत हो गई और सम्पूर्ण राज-पाठ विश्वामित्र द्वारा वापस कर दी गई। ऐसे महान राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता प्रलय के पूर्व तक लोगो को उदाहरण मार्गदर्शन तथा इतिहास में अमर रहेंगें।
आगे चल कर मेरी भूमि अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहित हुए। रोहित के पुत्र बाहुक, बाहुक के पुत्र सगर हुए। राजा सगर के हज़ारों पुत्र हुए। राजा सगर के अश्वमेध यज्ञ के घोड़ा इंद्र ने चुरा कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। सगर पुत्रों ने जब खोजते-खोजते कपिल मुनि के आश्रम पहुंचें तो कपिल मुनि को ही चोर समझ लिया और अनाप-सनाप बोलने लगें… कपिल मुनि के ध्यानावस्था से नेत्र खुल गए और सगर के साठ हजार पुत्र जल के राख हो गए। अब कैसे इनका उद्धार मोक्ष मिले तो कपिल मुनि ने ही उपाय बताया की स्वर्ग लोक में बहने वाली गंगा नदी को पृथ्वी पर लाके उसके जलस्पर्ष से उद्धार हो सकती है।
राजा सगर के पुत्र असमंजस, असमंजस के पुत्र अंशुमान, अंशुमान के पुत्र दिलीप, दिलीप के पुत्र भगीरथ। इन सभी राजाओं ने तपस्या की तो राजा भगीरथ के द्वरा विशेष तप साधना से गंगा मईया को पृथ्वी पर आना संभव हुआ पर एक और विचित्र समस्या थी कि स्वर्गलोक से पृथ्वी पर माता गंगा के धारा के वेग से पृथ्वी डगमगाने न लगे यदि ऐसा होता है तो पृथ्वी पर असंतुलन पैदा हो जाएगा। इसका समाधान केवल कैलाश पर्वत वाशी भगवान शंकर जी के ही पास था। पुनः राजा भगीरथ द्वारा भगवान शंकर जी के प्रसन्न कर के माता गंगा के वेग को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं में स्थान देकर हिमालय पर्वत के जिस स्थान से माँ गंगा का प्राकट्य हुआ वह स्थान गंगोत्री कहलाया। भगीरथ के विशेष प्रयास से वहाँ से गंगा जी अपनी धाराओं के साथ आगे बढ़ी है तभी रास्ते में जनु ऋषि के कुटिया गंगा जी के प्रबल धारा में बह गई। जनु बाबा को क्रोध आ गई, और जब संत क्रोधित हो जाते हैं तो वे ब्रह्मा जी के लकीर को भी बदलने के समर्थ रखते है क्यों कि संत अपने तपो बल से संसार के अद्भुत और अकल्पनीय शक्ति को प्राप्त कर लेते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है स्वयं नारायण ने भी संतो की खूब महिमा का बखान किया है और संतो को सदैव आदर किये है तभी तो एक बार भृगु ऋषि ने भगवान नारायण के छाती पर लात मारी तो भगवान क्रोध न कर कर अति प्रेम विनम्रता से कहा था भगवन मेरे कठोर छाती से आपके पैरों को कहीं चोट तो न लगी हो और उनके पैरों को सहलाने लगें अर्थात संत-महात्मा, ऋषि-मुनियों की महिमा अपरंपार है।
जनु ऋषि ने गंगा जी को ही पान कर लिया। राजा भगीरथ ने उनके चरणों में शीश नवां कर खूब अनुनय-विनय किया तो जनु ऋषि ने गंगा को पुनः प्रकट कर दिया क्यों कि संत तो बड़े दयालु कृपालु होते है और गंगा जी के यहाँ पर एक नाम जाह्नवी भी हो गया। फिर गंगा माता ने वर्तमान उत्तराखंड के विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग को परिप्लावित करते हुए हरिद्वार से मैदानी भागों में प्रवेश कर जाती है फिर उत्तर प्रदेश के कानपुर, तीर्थराज प्रयाग, मिर्जापुर से होते हुए काशी विश्वनाथ की भूमि बनारस को स्पर्श, पवन करते हुए गाजीपुर के रास्ते बिहार में प्रवेश करती है जहाँ बक्सर और महान क्रांतिकारी भारत माता के सपूत वीर कुवंर सिंह के धरती आरा से होते हुए ऐतिहासिक भूमि पटना को छूते हुए वैशाली, मुंगेर, भागलपुर को पार करते हुए पश्चिम बंगाल में कोलकाता के समीप गंगा सागर जहां कपिल मुनि का आश्रम आज भी मौजूद है वहाँ जैसे ही गंगा जी के जल पहुँचा सगर के साठ हजार भष्म हुए पुत्रो का उद्धार हो गया। फिर माँ गंगा जाकर सागर में विलीन हो गई।मैं अयोध्या सत्य सौहार्द प्रेम सहयोग का युग सतयुग को भी देखी हूँ, और मर्यादा आचरण पुरषोत्तम श्री राम का युग त्रेता को भी प्रत्यक्ष देखी हूँ और अनीति, अन्याय, न्याय, एवं धर्म का मिश्रित युग द्वापर को भी देखी हूँ और पाप, भ्रष्टाचार, द्वेष और कपट का युग कलयुग भी देख रही हूँ पर वास्तव में गंगा नदी से पवित्र नदी आज ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई नहीं है। गंगा नदी के जल में तारक शक्ति है यदि घोर पापियों के अंतकाल में कंठ में गंगाजल पहुँच जाए तो मोक्ष प्राप्त हो जाएगी। गंगा में स्नान करने से जन्म जन्मांतर के पाप भस्मीभूत हो जाते है तथा उत्तरायण कुम्भ मेंले में हरिद्वार और गंगा, यमुना, सरस्वती की त्रिवेणी संगम तीर्थराज प्रयाग में गंगा स्नान का महत्व तो स्वर्ग प्रदान करने वाली है। गंगा के जल में एक अलौकिक दैविक शक्ति ही है कि कभी खराब एवं मलिन नहीं होता जो उसके दैविक गुण का प्रमाण है। आगे चलकर भगीरथ के पुत्र श्रुत, श्रुत के पुत्र नाभ, नाभ के पुत्र सिन्धुदीप, सिन्धुदीप के पुत्र अयुतायुष आगे चलकर इन्ही के वंश में ऋतुपर्ण हुए, ऋतुपर्ण के सर्वकाम, सर्वकाम के सुदास हुए, सुदास के सौदास हुए, सौदास के अश्मक, अश्मक के मूलक, मुलक के सतरथ, आगे चल कर इन्ही के वंश में खट्वांग हुए, इनके पुत्र दिलीप, दिलीप के पुत्र रघु जो महापराक्रमी, सुर्यवंश के प्रतापी राजा जिनसे चला रघुकुल। रघु महाराज के पुत्र अज, आज के पुत्र दसरथ जिनकी कीर्ति का चर्चा प्रलयकाल तक चलती रहेगी। ऐसे महाप्रतापी और त्रेता के सर्वश्रेष्ठ कुल में महाराजा दसरथ के घर उनके पुत्र के रूप में माता कौशल्या के गर्भ से सृष्टि के मालिक भगवान नारायण नर/मनुष्य रूप में राम राज्य आदर्श एवं मर्यादा की लकीर खींचने अयोध्या नगरी में रामलीला करने राम रूप में पधारे हैं। राजा दसरथ के दूसरी पत्नी महारानी कैकयी के गर्भ से प्रेमास्वरूप भारत जी का प्रादुर्भाव हुआ है तथा तीसरी पत्नी सुमित्रा जी के गर्भ से एकाग्रचित्त और एक लक्ष्य का प्रतिपादित करने वाले लक्ष्मण जी एवं जिनके सुमिरण मात्र से हृदस्त छुपे तमाम शत्रुओं का खत्म करने वाले शत्रुघ्न जी का जन्म हुआ।
श्री राम ने ही यह आदर्श स्थापित किया है कि कोई भी पुत्र कितना भी महान, चक्रवर्ती, वैभवशाली, दूसरे ब्राह्म बनने की सामर्थ क्यों न रखता हो पर वो मातृभूमि, माता-पिता एवं गुरु से बड़ा नहीं हो सकता।
अतः आगे की कथा लीलावर प्रभु रामावतार में स्वयं ही करें तो मैं मातृभूमि अयोध्या एक बार पुनः स्मरण कर गद-गद और तरोताज़ा हो जाऊंगी क्योंकि उनके लीला समाप्त कर वैकुण्ठ जाने के उपरांत मैंने कई हमले विवादों को झेली हूँ परंतु ये कृपा उन्हीं करुनानिधान, दयानिधान की है कि मैं हर बार एक नए स्वरूप तथा लोक कल्याण के वास्ते एक नई सिख देने के साथ निखरी हूँ। मेरे और श्री राम के कथा से भविष्य, वर्तमान सिख लेकर घोर कलिकाल में भी कलुषित प्राणियों के बीच आनंद मार्ग पर निश्चिन्त आदर्श मूल्यों सहित मर्यादित जीवन जी सकेगा तथा नवयुग कलयुग में भी पुनः रामराज्य की पुनर्स्थापना कर के किसी भी देश की परिसीमा में अमन, चैन, शांति, तरक्की, उन्नति की बीज बो सकेगा जो समयोपरांत आम के आम और गुठली के दाम जैसा साबित होगा।
©आलेख: डा. अभिषेक कुमार