उम्मीद ( लघुकथा )
उम्मीद
( लघुकथा )
वह सुन पा रही थी बहस में ऊँची होती आवाज़ और फिर माँ की सिसकी…
पापा को वो नहीं चाहिए…
क्यों पापा? मैं क्या नहीं कर सकती जो आपका बेटा कर देगा.
वो पूछना चाहती थी…
दादी आप तो खुद एक औरत हो फिर आप कैसे….
वो चीखना चाहती थी.
मुझे मौका तो दो.. आने तो दो इस दुनिया में….
मत रोको मुझे…
कहने को शिक्षित यह परिवार आज भी बेटे को वंश बढ़ाने वाला समझते हैं….
किसे याद रहता है आज अपने दादा परदादा के आलावा किसी पूर्वज का नाम भला. और कितने कुलदीपकों ने अपने ही कुल का नाश कर दिया ये किसी को याद क्यों नहीं रहता…
रौशन तो मै भी कर सकती हूँ अपने माँ पापा का नाम.
माँ तुम क्यों रो रही हो…
तुम चाहो तो कोई नहीं रोक सकता मुझे इस दुनिया में आने से…
कोई सुने या ना सुने, माँ सुन रही थी. महसूस कर रही थी
एक निर्णय लेते हुए उसने उसे सहलाया… कुछ नहीं होने दूँगी मै तुम्हें.
माँ के हाथों के स्पर्श ने उसकी आँखों में एक उम्मीद कि किरण जगा दी इस दुनिया को देखने, अपनी माँ की उम्मीद पूरा करने और अपने अस्तित्व को नकारने वाले को झूठा साबित करने की उम्मीद…..
गीता राज
पटना बिहार