आलेख — शाप और वरदान
आलेख —
शाप और वरदान —
प्रस्तावना –
शास्त्रों में वर्णित है कि- परमपिता परमात्मा द्वारा सृष्टि का सर्जन मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ (एकोऽम् बहुस्याम:)..ऐसे संकल्प को पूर्ण करने हेतु आदि पुरुष और प्रकृति के संयोग से इस सृष्टि रचना की गई है। समस्त धर्माचार्य प्रवचन में कहते भी हैं..सर्व अन्तर्यामी परमात्मा सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। ईश्वर अंश जीव अविनाशी एवं सोऽम् मंत्र जाप.. अर्थात जो ईश्वर है वही मैं हूँ.. मैं अर्थात् जीव.. ऐसी उक्तियाँ इसी सत्य को (स्वयंमेव उद्घाटित करती हैं। त्रिगुणात्मक सृष्टि युक्त प्रकृति में चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के जीव विभिन्न रूप, रंग,आकार,स्वभाव, गुण, कर्म आदि के साथ उत्पन्न होते हैं। सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु नियमानुसार सभी जीव नवीन कर्म करने के साथ किए गए संचित कर्मों के भोग हेतु उत्पन्न एवं मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं।
शाप और वरदान का आधार–
सीधे और सरल शब्दों में कहें तो, संकल्प-बल को आधार बनाकर जब किसी व्यक्ति को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है तो वह अभीष्ट फल वरदान कहलाता है। दूसरी ओर अप्रसन्न होने पर जब किसी व्यक्ति का अनिष्ट करने हेतु उसे अमंगल शब्दों से ताड़ित किया जाता है तो वह शाप या बददुआ कहलाता है।
शाप और वरदान के अकाट्य उदाहरण–
यह कहानी आपको भी शायद याद होगी कि पुरातनकाल में संकल्प-बल के आधार पर परम विद्वान परंतप महर्षि विश्वामित्र ने अयोध्या के राजा राम के पूर्वज महाराज त्रिशंकु का मनोरथ पूर्ण करने हेतु उनको सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। वह जीवित और सदेह स्वर्ग में जाना चाहते थे। लेकिन नियम विरुद्ध कार्य को देखकर अमरावती के राजा इन्द्र ने उन्हें नीचे गिरा दिया। त्रिशंकु तेजी से नीचे की ओर गिरने लगे। तब ऋषि विश्वामित्र ने तप के आधार पर उन्हें बीच में रोक दिया और वरदान स्वरूप अंतरिक्ष में नवीन स्वर्ग का निर्माण किया। जहाँ आज भी इक्ष्वाकु वंश के महिपाल त्रिशंकु जी सशरीर निवास करते हैं।
इस प्रसंग में मुझे याद आती है राजा उत्तानपाद के पुत्र भक्त ध्रुव की कथा। राजा उत्तानपाद और सुनीति के पुत्र ध्रुव को बाल्यकाल में महर्षि नारद जी से गुरुमंत्र एवं मार्गदर्शन मिला तब वरदान स्वरूप स्वयं भगवान विष्णु जी उनके समक्ष साक्षात् प्रकट हो गये। तभी तो आज भी ईश्वर के वरदान स्वरूप महात्मा ध्रुव उत्तर दिशा में अपने स्थान पर अटल जगमगाता हुआ ध्रुव तारा के रूप में विराजमान है।
शाप और वरदान को परिभाषित करने हेतु मुझे देवी अहल्या जी की कथा याद आ रही है। इसमें शाप और वरदान दोनों क्रियाएं सिद्ध होती हैं। एक बार अहल्या देवी पर मोहित अमरापुरी के राजा इन्द्र ने छल द्वारा देवी अहल्या का सतीत्व भंग किया था। इस प्रकरण में देवी अहल्या नितांत निर्दोष थी। लेकिन उनके पति ऋषि गौतम ने कुपित होकर उन्हें शाप दिया और पाषाण- शिला बना दिया। तब निर्दोष देवी अहल्या के अनुनय-विनय करने पर उन्होंने वरदान स्वरूप उन्हें यह वचन दिया कि राजा राम के चरण-स्पर्श करने पर तुम अपने पूर्व नारी रूप को प्राप्त कर लोगी। तब त्रेतायुग में भगवान राम के आगमन और चरण- स्पर्श से पाषाण्-शिला बनी देवी अहल्या साक्षात् नारी रूप में परिवर्तित हो गई थी।
कार्य सिद्धि और पुरुषार्थ —
धर्मग्रंथों का अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि हमारे भारत देश में सनातन हिंदू धर्म संस्कृति जनमानस के कल्याण हेतु सदैव सर्व समभाव एवं सर्व कल्याण का प्रतिपादन करती रही है। प्राचीनकाल से आधुनिक काल तक चारों युगों में लोक कल्याण कारी कार्य हमें धर्म-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। हमारे धर्म शास्त्रों में वर्णित है कि सिद्धि को प्राप्त योग्य गुरु के मार्गदर्शन में साधक योग, ध्यान, साधना, प्राणायाम जैसी शरीर शुद्धि की क्रियाओं से शरीर शोधन कर लेता है, तब ईश्वर-भक्ति सेवा, साधना करने वाले श्रद्धा, लगन, निष्ठा एवं विश्वास के साथ ईश्वरीय उपासना करने वाले साधक एक ही समय एक ही आसन पर बैठकर लगनशीलता से मंत्र जाप करते हैं, तो श्वास के साथ मिलाकर मंत्र जपने से शरीर के भीतर स्थित नाड़ीचक्रों में सूक्ष्मस्पंदन होने लगता है। स्पंदन होने पर अनाहत-चक्र में नादशक्ति का जागरण सम्भव हो जाता है। नाद के जाग्रत होने से निश्चित रूप से ऐसे साधक शक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं। तब वह किसी भी व्यक्ति को शाप या वरदान देने में सक्षम होते हैं।
उपसंहार —
जैसा कि प्राचीन काल के हमारे ऋषि मुनियों को यह ईश्वरीय-शक्ति प्राप्त थी। इसी क्रम में आधुनिक काल में आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री जी का नाम बेहद चर्चित है। आज सोशल मीडिया के द्वारा सभी जानते हैं कि जागेश्वर धाम के आचार्य धीरेन्द्र शास्त्री जी इसका जीता जागता प्रमाण है। जिन्होंने अपने गुरु एवं चिरंजीवी बाबा हनुमान जी की साधना सिद्धि प्राप्त की है। आज धीरेन्द्र शास्त्री जी उसी सिद्धि के बल पर लाखों-करोड़ों श्रद्धालुओं के संकटमोचक बन गए हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति के हृदय में कुछ करने की अदम्य लालसा हो तो ईश्वरीय वरदान जैसी शक्तियाँ भी उसे सच में प्राप्त हो सकती है। क्योंकि कोशिश करने वाले की कभी हार नहीं होती। अतः परिश्रमपूर्वक साधना करने वाले साधक के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
सीमा गर्ग ‘मंजरी’
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश
1 Comment
बहुत सुंदर सार्थक आलेख 💐