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गांव को तलाश है

गांव को तलाश है

गांव की सब गलियां को आज भी तलाश है,
पगडंडियां आज भी तलाशती है पदचिन्ह।
शहर गए उन पुतो के लौटने की आश रख,
जो बस गये शहर में रिश्तों को रख ताक पर।

गांव के सभी पेड़ अभी भी उदास हैं,
सोचते हैं क्यों शरारतों से भरे बचपन।
मुझे नज़र नहीं आते सुबह से शाम तक,
जो बस गये शहर में रिश्तों को रख ताक पर।

वह पोखर नाले नहर सब बुझे बुझे से रहते हैं,
जो खेलते थे मुझसे कागज की नांव रख।
वह रास्ते भटक गये है नल में अटक गए हैं,
जो बस गये शहर में रिश्तों को रख ताक पर।

भाग रही है ज़िन्दगी भाग रहें हैं लोग,
गांव डरा हुआ है शहर बड़ा हुआ है।
आनंद का हर पल दूर खड़ा हुआ है,
जो बस गये शहर में रिश्तों को रख ताक पर।

गांव समझ न पाया न शहर ने दुःख जताया,
रस्मों रिवाजों ने भी कुछ टुटता सा पाया।
सब समझ रहे हैं मतलब का मौसम आया,,
जो बस गये शहर में रिश्तों को रख ताक पर।
कमल नारायण सिंह

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