आभासी समाज सोच
आभासी समाज सोच
हमारे जीवन में बहुत बार कुछ ऐसा हो ही जाता है,जिसकी कल्पना तक हम नहीं करते , सोचते भी नहीं होते, या यूं भी कह सकते हैं कि हमें विश्वास भी करना मुश्किल हो जाता है। इस बहुरंगी दुनिया की लीला भी अस्थिर है। ऐसे में हम अपना खुद का ही अनुभव उदाहरण के तौर पर रखता है। हमारा समाज साहित्यिक दायरा तेजी से बढ़ रहा है। ये प्रसन्नता की बात तो है ही, मगर इस दायरे में बहुत से ऐसे रिश्ते भी बनते जा रहे जिसके बारे में सोचना भी अजूबा सा लगता है। उसके बाद तो ये सिलसिला कब भावनाओं से जुड़ते हुए रिश्तों में तब्दील हो गया कि पता ही न चला। अब सहाय दंपत्ति की भूमिका हमारे लिए पितृवत,मातृवत है। एक माता पिता की तरह हमारे हर खुशी,दु:आ, समस्याएं उन्हें प्रभावित करती हैं, तो हम भी अपनी हर समस्या, सुख, दु:ख, उपलब्धियों को उनसे साझा करके संतोष का अनुभव करता हूं। हर तरह की समस्या का यथा संभव निदान भी वो पितृत्व करते हैं। ताज्जुब होगा कि आज तक हम कभी मिले नहीं है। उनके पहली बार फोन करने से पूर्व हम एक दूसरे को जानते तक नहीं थे। हमारे साथ ऐसे एक नहीं अनेक किस्से हैं। एक और घटनाक्रम की ओर देखते हुए। पहले ही स्पष्ट है। समाज संस्कार व संस्कृति में हमारे रिश्तों का विकास भी निरंतर न हो रहा है। बड़ी बात तो यह है ९९% रिश्ते आज भी आभासी ही हैं। मगर उन रिश्तों में पितृत्व ही नहीं मां,बहन, बेटियां, बड़े, छोटे भाई ही और समाज व्यवहार न दिखाई दे और इन रिश्तों की बहुत से औपचारिक हैं। तो कुछ अनौपचारिक और भावनात्मक भी। जिनसे हमारे साथ वास्तविक रिश्तों सा व्यवहार है। विश्वास नहीं करेंगे मगर डांट भी खाता है, तो डांटने का अधिकार है। रिश्तों की मर्यादा के अनुरूप लड़ना झगड़ना भी होता है। पारिवारिक दु:आ सुख और यथा संभव मार्गदर्शन भी होता रहता है। कई उम्र में बड़े होकर बड़ा मान -सम्मान करना तो कई को डांट खाकर भी संतोष होता है। क्योंकि वे मानते हैं कि इस डांट के पीछे उन्हीं का बेहतर छुपा। तो कई ऐसे भी हैं जो रिश्तों के नाम पर स्पष्ट स्वार्थ साधते रहते हैं, मगर हम आप रिश्तों की मर्यादा में बंधे रहकर खुद विवश हो रिश्ते निभाते ही रहते हैं। मेरा मत है कि ऐसे सभी आभासी संबंधों को वास्तविक धरातल पर देख पाना शायद ही जीवन में संभव हो सकेगा। मगर जो खुशी मिलती है, उसे शब्दों में बयान कर पाना संभव नहीं है। बड़े होने का सम्मान मिलता है तो छोटे होने का दुलार भी। आभासी रिश्तों के बाद भी हम एक दूसरे के साथ रिश्तों को भरपूर महत्व भी देते हैं। मैं खुद उनके कदमों में सिर झुकाता है। तो बहुत से मुझे भी झुकाते हैं। कुछ ऐसे भी रिश्ते हैं जो उम्र में बड़े होकर भी सम्मान देते हैं तो कुछ छोटों को भी बड़ों जैसा सम्मान देने का भाव स्वमेव उछलकूद करता है। ऐसे ही आभासी रिश्तों से जुड़ी एक बड़ी बहन हैं, जो हमारे समाज व्यवस्था में प्रणाम,जय जोहार, बाबा देव, जयराम जी, नमस्ते कहने संकोच महसूस करते हैं। मगर प्यार, दुलार, मार्गदर्शन बड़ी बहन ही नहीं मां जैसा ही देती है। जबकि एक छोटी बहन से जब पहली बार वास्तविक रुप से मिला और उसने हमू पैर छुए तो ,उसके लिए हमारे मन में जो भाव जगा हम खुद हैरान रहते हैं। छोटी तो है परंतु वो मुझे बहन ही नहीं माँ और बेटी जैसी लगी। और हम उसके पैर छूकर उसे सम्मान देने के प्रति आज भी उत्सुक रहता है। आज हम साहित्यिक और आभासी दुनिया से आगे पारिवारिक रिश्तों को निभा रहे हैं। जिसमें बड़े होने का यदि मुझे एहसास होता है, तो छोटी होने का फायदा उठाना उसका जैसे जन्मसिद्ध अधिकार है। विश्वास करना कठिन ही नहीं समझ से परे भी है कि ऐसे रिश्ते आखिर यूं बन कैसे जाते हैं, तब एक आत्मबोध होता है, ऐसे रिश्ते बनते नहीं, पूर्व कर्मों, जन्मों से संबंधित होते हैं।जो वर्तमान में हमारे साथ किसी न किसी रूप में जुड़ जाते हैं। यह अलग बात है कि इसके लिए कोई न कोई माध्यम खुद बखुद बहाना बन जाता है। ईमानदारी से सोचने पर आत्मबोध हो ही जाता है कि अंजान रिश्ते यूं ही मूर्त रूप नहीं ले लेते। पिछले जन्मों के संबंध ही नये रुप में जीवंत हो उठते हैं।मगर हम इसे ईश्वर की कृपा, व्यस्था मानकर आगे बढ़ते ही रहने को अपना कर्तव्य समझते हैं। प्रकृति का अपना एक रहस्य अपने आप में अद्भुत है । जिसने जीवन में जान लिया। जहां पर्वत पहाड़,जल, जंगल जमीन नदियां, पेड़ पौधे, जीव जंतु जड़ी बूटियां, मानवीय जीवन सबसे प्राचीनतम सभ्यता प्राकृतिक जीवन शैली न कोई इंजेक्शन, हमारी संस्कृति संस्कार प्राकृतिक जीवन सुखमय व सुन्दर रचना की ।
लेख
बी0एल0 भूरा
भाबरा मध्यप्रदेश