धरा मातृवत्
धरा मातृवत्
हर बार गर्मी के मौसम में शाम को जब धूप की तपस कम होने लगती है तब हम कुछ अवकाश ( भले ही नौकरी से हो या व्यवसाय से ) प्राप्त दोस्त पार्क में बैठ राजनीति वाले विषय से हट किसी भी प्रकार के अन्य विषय पर आपस में चर्चा कर लेते हैं।
एक शाम हम कुछ दोस्त पार्क में बैठ गपशप कर रहे थे जहाँ पार्क के बीच बच्चे खेल भी रहे थे।इसी बीच मेरा पोता अपने कुछ दोस्तों के साथ आकर मुझ से कहा कि दादाजी आज यह जमीन अभी तक गर्म हवा ही फेंक रही है तभी बीच में उन्हीं बच्चों में से एक ने कह दिया कि इससे अच्छा तो ‘यह जमीन न होती’।
इतना सुनने के बाद वहाँ उपस्थित सभी बच्चों को मैंने समझाते हुये कहा – चूँकि हम धरा को माता मानते हैं इसलिये तुम लोगों का यह प्रश्न ‘गर भूमि नहीं होती ‘ बेईमानी वाला माना जायेगा क्योंकि यदि धरती न होती तो हम होते ही नहीं फिर यह सब बातें उठती ही नहीं ।
इसलिये आज हम जो कुछ भी हैं वह एक उस माता की कृपा से हैं जिसने अनेकों कष्ट सहन कर हमें जन्म दिया
और
दुसरी यह धरती माता है जो हमें बाकी सब कुछ अर्थात सभी कुछ दे रही है।
जबकि हम इस धरती माता के साथ दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहे हैं अर्थात सभी मिलकर ऐसा दोहन कर रहे हैं जिससे संतुलन बिगड़ रहा है जो किसी भी हालात में शोभनीय नहीं माना जा सकता।
इसलिये आवश्यकता है यह सोचने की है कि हमारी क्या हालत होती यदि ‘ गर भूमि न होती तो’। इसलिये अभी भी समय है कि हम अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगा के रखें ताकि यह धरा हरी भरी रहे और यह स्वतः जो हमें दे उसी पर सन्तोष करना सीखें।
इसके साथ उपरोक्त तथ्य को हम ज्यादा से ज्यादा प्रचारित करें, सभी को प्रेरित भी करें ताकि अपनी धरती माता के प्रति हम सब अपना दायित्व समझें ही नहीं बल्कि उन दायित्वों की स्वयं तो पालना करें ही औरों से भी करवायें।
ध्यान रखें सामूहिक प्रयास का नतीजा हमेशा न केवल सुखदायी होता है बल्कि लम्बे समय तक प्रभावी भी रहता है।
गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
जय नारायण व्यास कॉलोनी
बीकानेर