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आधुनिकता में खोता हमारा जीवन-एक सत्य और एक कटु यथार्थ

आधुनिकता में खोता हमारा जीवन-एक सत्य और एक कटु यथार्थ
*अनुभूति की यह विवशता है कि वह अभिव्यक्ति में उस गहराई को नहीं प्राप्त कर पाती जो उसमें होती है।भाषा की कमजोरी उसका साथ नहीं दे पाती।वर्तमान का सत्य यही है कि मनुष्य की संवेदनाओं का क्षरण हो रहा है और तंत्र व्यवस्था निरंतर पुष्ट हो रही है।*
*हर सड़क आबाद है लेकिन हर नजर सुनसान है,
आज अपनी ही गली में आदमी अनजान है।*
सत्य तो कड़वा होता ही है, लेकिन यदि गंभीरता पूर्वक सोचें तो सत्य दीर्घकाल के लिए अच्छा ही होता है।इसी तरह का एक सत्य विवाह की बढ़ती उम्र भी है,जिस पर पूरा समाज एक अजीब सी खामोशी ओढ़े हुए है।विवाह की उम्र तो वैसे लड़कों के लिए 21 वर्ष व लड़कियों के लिए 18 वर्ष की न्यूमतम आयु निर्धारित है।यह प्राचीन काल में प्रचलित बाल विवाह की कुप्रथा रोकने की दृष्टिकोण से सरकार ने लागू किया था।लेकिन आज हर समाज में 30 से 35 वर्ष,कहीं -कहीं तो 40 वर्ष तक भी कुँवारे युवक और युवतियां मिल जायेंगे।जी हाँ अब लड़का -लड़की नहीं बल्कि युवक -युवतियों की शादियाँ हो रही हैं।हमारे साथ काम करने वालों में भी ऐसे ही एक दो शादियाँ हो चुकी हैं।कुछ अभी 40 -42 की उम्र की दहलीज पर जीवन साथी के तलाश में हैं।
यह एक गंभीर समस्या बनती जा रही है।पहले कुछ विशेष समाज या वर्ग तक सीमित थी अब प्रत्येक समाज में यह पैर पसार चुकी है।
इसमें उम्र तो एक कारण है ही मगर समस्या अब इससे भी कहीं आगे बढ़ गई है, क्योंकि 30 से 35 साल तक की लड़कियां और लड़के बिना शादी विवाह के बैठे हुए हैं। ऐसे में लड़के-लड़कियों के जवां होते सपनों पर न तो किसी समाज के कर्ता-धर्ताओं की नजर है और न ही किसी रिश्तेदार और सगे संबंधियों की। हमारी सोच कि हमें क्या मतलब है में उलझ कर रह गई है। बेशक यह सच किसी को कड़वा लग सकता है लेकिन हर समाज की हकीकत यही है,30 वर्ष के बाद लड़कियां ससुराल के माहौल में ढल नहीं पाती है, क्योंकि उनकी आदतें पक्की और मजबूत हो जाती हैं अब उन्हें मोड़ा या झुकाया नहीं जा सकता जिस कारण घर में बहस, वाद- विवाद,लड़ाई-झगड़ा होना आम बात है, तलाक तक भी हो जाता है।बच्चे भी ऑपरेशन से पैदा होते हैं जिस कारण बाद में बहुत सी अन्य बीमारी का सामना करना पड़ता है।
एक समय था जब संयुक्त परिवार के चलते सभी परिजन अपने ही किसी रिश्तेदार व परिचितों से शादी संबंध बालिग होते ही करा देते थे। मगर बढ़ते एकल परिवारों ने इस परेशानी को और गंभीर बना दिया है। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि एकल परिवार प्रथा ने आपसी प्रेम व्यवहार ही खत्म सा कर दिया है। अब तो शादी के लिए जांच पड़ताल में और कोई तो नकारात्मक करे या न करे पर अपने ही खास सगे- संबंधी उसे नकारात्मक कर, बनते संबंध को खराब कर देते है।
उच्च शिक्षा और नौकरी या व्यवसाय करने की ललक लड़के और लड़कियों दोनों की उम्र बढ़ा रही है। शिक्षा शुरू से ही मूल आवश्यकता रही है लेकिन पिछले डेढ़ दो दशक से इसका स्थान उच्च शिक्षा या कहे कि कमाने वाली डिग्री ने ले लिया है। इसकी पूर्ति के लिए अमूमन लड़के की उम्र 27 -30 या अधिक हो जाती है। कई बार साक्षात्कार लेते समय मेरे समक्ष 35 वर्ष या उससे से भी अधिक आयु के अभ्यर्थी आते हैं।इसके दो-तीन साल तक जॉब करते रहने या बिजनेस करते रहने पर उसके संबंध की बात आती है। जाहिर से इतना होते-होते लड़के की उम्र तकरीबन 32 -35 के आस-पास हो जाती है। इतने तक रिश्ता हो गया तो ठीक, नहीं तो लोगों की नजर तक बदल जाती है,अर्थात सवाल खड़े किये जाने लगते हैं।एम्स के प्रो ईश्वर चंद वर्मा के अध्ययन के अनुसार 35 वर्ष या उससे अधिक आयु की महिला के वच्चा पैदा होने पर प्रति हजार एक वच्चा डाउन सिंड्रोम होने की संभावना रहती है।
उम्र का यह पड़ाव चिंता,भय,निराशा उत्पन्न करता है।साथ ही भूख,प्यास,निद्रा,काम सभी जैविक आवश्यकताएँ हैं,जिनका पूरा होना जरूरी है।प्रकृति के हिसाब से 30 से अधिक का पड़ाव चिंता देने वाला है। न केवल लड़के-लड़की को बल्कि उसके माता-पिता, भाई-बहन, घर-परिवार और सगे -संबंधियों को भी। सभी तरफ से प्रयास भी किए, बात भी जंच गई लेकिन हर संभव कोशिश के बाद भी रिश्ता न बैठने पर उनकी चिंता और बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, शंका-समाधान के लिए मंदिरों तक गए, पूजा-पाठ भी कराए,ज्योतिषियों ने जो उपाय बताए वे भी कर लिए पर बात नहीं बनती। मेट्रीमोनी, वेबसाइट्स व व्हाट्सअप पर चलते बायोडेटा की गणित इसमें कारगार होते नहीं दिखाई देती। बिना किसी मध्यस्थ के संबंध होना मुश्किल ही होता है।लेकिन आज कोई मध्यस्थ बनना नही चाहता है,क्योंकि उम्र के इस पड़ाव के वयस्क कुछ सुनना नहीं पसंद करते हैं। मगर इन्हें कौन समझाए की जब हम किसी के मध्यस्थ नहीं बनेंगे तो हमारा भी कोई नहीं बनेगा। एक समस्या ये भी हम पैदा करते जा रहे है कि हम सामाजिक न होकर एकांतवादी बनते जा रहे है।यह समाज के लिए घातक है और स्वयं व्यक्ति के लिए भी।
युवा मन आखिर जाय कहाँ,अपने मन को समझाते-बुझाते वह आखिर कब तक भाग्य भरोसे रहेगा। अपनों से तिरस्कृत और मन से परेशान युवा सब कुछ होते हुए भी अपने को ठगा सा महसूस करता है। हद तो तब हो जाती है जब किसी समारोह में सब मिलते हैं और एक दूसरे से घुल मिलकर बात करते हैं लेकिन उस वक्त उस युवा पर क्या बीतती है, यह वही जानता है। ऐसे में कई बार नहीं चाहते हुए भी वह उधर कदम बढ़ाने को मजबूर हो जाता है जहां शायद कोई सभ्य पुरूष जाने की भी नहीं सोचता या फिर ऐसी संगत में बैठता है जो बदनाम ही करती हो।
प्रत्येक लड़की और उसके माता -पिता की ख्वाहिश से आप और हम अच्छी तरह परिचित हैं। पुत्री के बनने वाले जीवनसाथी का खुद का घर हो, कार हो, परिवार की जिम्मेदारी न हो, घूमने-फिरने और आज से युग के हिसाब से शौक रखता हो और कमाई इतनी अच्छी हो कि सारे सपने पूरे हो जाएं, तो ही बात बन सकती है। हालांकि सभी के अरमान ऐसे नहीं होते लेकिन चाहत सबकी यही है। शायद हर लड़की वाला यह नहीं सोचता कि उसका भी लड़का है तो, क्या मेरा पुत्र किसी ओर के लिए यह सब पूरा करने में सक्षम है?यानि एक गरीब बाप भी अपनी बेटी की शादी एक अमीर लड़के से करना चाहता है और अमीर लड़की का बाप तो अमीर से करेगा ही। ऐसे में सामान्य परिवार के लड़के का क्या होगा? यह एक चिंतनीय विषय सभी के सामने आ खड़ा हुआ है। संबंध करते वक्त एक दूसरे का व्यक्तिव व परिवार देखना चाहिए ना कि पैसा। कई ऐसे रिश्ते भी हमारे सामने है कि जब शादी की तो लड़का आर्थिक रूप से सामान्य ही था मगर शादी बाद वह आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो गया। ऐसे भी मामले सामने आते है कि शादी के वक्त लड़का बहुत अमीर था और अब स्थिति सामान्य रह गई। इसलिए धन और वैभव तो आता -जाता रहता है,यह प्रकृति का नियम है।
समाजसेवा करने वाले लोग आज अपने नाम के प्रचार -प्रसार के लिए लाखों रुपए खर्च करने से नहीं चूकते,जाड़े की ठिठुरती रात में कंबल बांटते हैं तो भी कैमरा मैन साथ ले जाते हैं,अस्पताल में मरीज को दो केला पांच लोग देने जाते हैं। लेकिन बिडम्बना है कि हर समाज में बढ़ रही युवाओं की विवाह की उम्र पर कोई चर्चा करने की व इस पर कार्य योजना बनाने की फुर्सत किसी को नहीं है,विचार करने की मोहलत नहीं है।जबकि विवाह एक प्रमुख आवश्यकता है,यह न केवल दो युवक -युवतियों का संबंध है बल्कि दो परिवारों सहित अनेक लोगों का पारस्परिक मेल -जोल का,संस्कृति संवर्द्धन का और सृजन का माध्यम है।वैसे प्रत्येक समाज की अनेक संस्थाएं हैं वे भी इस गहन बिन्दु पर चिंतित व गंभीर नजर नहीं आती।हमें इस ज्वलंत मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा और उस पर अमल करने की जरूरत है,तभी हम एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।
डॉ ओ पी चौधरी
अवकाश प्राप्त आचार्य एवं विभागाध्यक्ष,मनोविज्ञान विभाग,
संकायाध्यक्ष,कला,मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान संकाय,
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणासी।
मो:9415694668

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