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प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा की भूमिका

प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा की भूमिका

भाषा मानवीय जीवन की आधारशिला है। मानव जीवन का प्रत्येक पहलू भाषा की ही देन है। भाषा के अभाव में मानव मृतप्राय ही माना जायेगा। विचार, अभिव्यक्ति, कला, संस्कृति, साहित्य, सामाजिक परंपराओं का निर्वहन करने का एकमात्र माध्यम है- ‘भाषा’। भाषा इन सभी के संरक्षण व संवर्धन का सशक्त व श्रेष्ठ साधन के रूप में सदियों से स्थापित है। इस कथन पर असहमति व्यक्त करना अर्थात भाषा की अवहेलना करने जैसा ही होगा। भाषा और मनुष्यता का संबंध आंतरिक व आत्मीय होता है। आचार-विचार, व्यवहार, संस्कार भाषा के विभिन्न सोपान हैं जो मनुजता को पोषित करते हैं। सभ्यता की सीढियों पर आरोहण हेतु भाषा का अवलंबन अत्यावश्यक होता है। शारीरिक क्षमताओं से परिपूर्ण होकर भी हम भाषा के अभाव में पंगु ही माने जायेंगे। सम्प्रेषण एवं संवाद का एकमात्र सुचालक भाषा ही है। व्यक्ति के समस्त विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम एवं आधार भाषा पर ही निहित है। भाषा के अभाव में विचार अपना अस्तित्व खो देता है। भाषा एक सुनिश्चित कूट चिन्हों व ध्वनियों के राजमार्ग से होकर हृदय की गहराइयों तक पहुँचती है। इन्हीं सर्वमान्य प्रणाली को अपनाकर भाषा अपना अर्थ ग्रहण करने में समर्थ बनती है।
भाषा का महत्वपूर्ण प्रभाव बच्चों के प्रारंभिक (बुनियादी) शिक्षा पर अत्यधिक पड़ता है। शिक्षा के विभिन्न आयामों को भाषा के माध्यम से ही एकीकृत किया जाता है। बच्चों में चिंतन, मनन, अध्ययन एवं निर्णय क्षमता का विकास भाषा के द्वारा ही संभव है अतैव भाषा इनके जीवन के केन्द्र बिन्दु की भाँति है। भाषा के कारण ही बच्चा स्वयं का समाज के साथ संबंध स्थापित कर पाने में सफल होता है। यदि हम मातृभाषा को बच्चे के अस्तित्व की केन्द्रीय धुरी कहें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चे ही नहीं अपितु मनुष्य के जीवन में भी उनकी अपनी भाषा की भूमिका केन्द्रीय और विशेषकर होती है। मनुष्य अपने वातावरण से प्रभावित हुए बिन नहीं रह सकता है। वह इनके अवयवों को निकटता से दृष्टिगोचर करता है और उसे आत्मीयता के साथ ग्रहण भी करता है। अपनी भावनाओं को अपने वातावरण के घटनाक्रमों से समायोजित करते हुए उसे अभिव्यक्त भी करता है। अपनी भावों को अभिव्यक्त करने इसे भाषा की आवश्यकता पड़ती है। यही भाषा मनुष्य की मानसिक सक्रियता को गतिशील बनाये रखने का उद्यम करती है। शयन, जागरण, भ्रमण, मनोरंजन इत्यादि समस्त मानसिक क्रियाओं में भाषा का ही वर्चस्व रहता है। हम भाषा की अनुपस्थिति में स्वयं से वार्तालाप (अंतर्द्वन्द्व) भी नहीं कर पाते है जो कि एक सतत चलने वाली अविरल प्रक्रिया है। इसीलिए भाषा मनुष्यता व उससे अस्तित्व का मूल है और वह भाषा निश्चित ही अपनी मातृभाषा ही होती है। किसी अन्य की भाषा में स्वयं को जोड़ना संभव ही नहीं होता।
प्रत्येक मनुष्य का अपनी भाषा एवं संस्कृति के प्रति अगाध आत्मिक संबंध होता है। मनुष्य का परिवार, समाज और स्वयं से आत्मीय संबंध अपनी भाषा के कारण ही प्रगाढ़ होता है। यही अपनी भाषा मनुष्य की मातृभाषा का दर्जा प्राप्त करती है। मातृभाषा का सीधा सा अर्थ यह है कि माता से सीखी हुई भाषा। बच्चों के संदर्भ में यदि हम मातृभाषा को समझे तो हमें यह ज्ञात होता है कि बच्चों का रोना, हँसना और खेलना-कूदना जिस भाषा में होता है वही उनकी मातृभाषा कही जाती है। इसी भाषा में बच्चा अपने आप को बहुत ही सहज पाता है। अतैव इसे वह बड़ी आत्मीयता से अपनी लोककला और संस्कृति की विरासत को उत्तरोत्तर समृद्ध करते रहता है। अपनी मातृभाषा से ही शिक्षा की अवधारणाएँ व्यवस्थित होकर ज्ञान के रूप में परिणित होती हैं। ज्ञान की संरचना को समझने का माध्यम भाषा है और आत्मीयतापूर्ण अंतरंग व्यवहार मातृभाषा द्वारा ही संपादित होते है। लड़ने-झगड़ने और प्रेम प्रगट करने के लिए हमें भाषा की नहीं मातृभाषा की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि यह अपनों के मध्य अपनत्व की भाव जगाने का एक शसक्त माध्यम है। व्यक्ति सुशिक्षित होकर अपने प्रौढावस्था में भी अपने मातृभाषा में ही सहज होता है, सीखी गई विविध भाषाओं के सापेक्ष। हम कितना भी उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, विदेशों में विद्यार्जन करते हैं, आजीविका हेतु सात समुंदर पार चले जाएँ परंतु वहाँ यदि हमारी मातृभाषा बोलने वाला कोई भी मिल जाता है तो उसके साथ सहर्ष आत्मीयता जुड़ जाती है। जिस आनंद की अनुभूति हमें बचपन के दोस्तों से बात करने में होती है वह किसी विशिष्ट विद्वान के साथ विचार-विमर्श में कतई नहीं।
बाल्यकाल में मातृभाषा का शिक्षा में भी सबसे महत्वपूर्ण योगदान होता है। प्रारंभिक वर्षों में शिक्षा देने का कार्य उनकी भाषाओं में करने से बच्चों को सीखने में कोई असुविधा नहीं होती। बच्चों को अपनी भाषा और विद्यालय की भाषा में समानता होने से बच्चा अपने स्वाभिमान के साथ अपने आपको शिक्षा से जोड़ता है। जहाँ उनकी भाषा वहाँ उनको ठहरने की अभिलाषा अत्यधिक रहती है और वे अधिक क्रियाशील रहते हैं। बच्चे अपनी भाषा के सेतु से विभिन्न भाषाई अवरोधों को बड़ी ही सुगमता से पार कर सकते हैं। मातृभाषा मात्र हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान आदि अनेक विषयों को समझने तक ही सीमित नहीं रहती अपितु यह एक विचारधारा की भाँति जीवन में सफलता के मार्ग भी प्रशस्त करती है। बच्चों की अपनी भाषा केवल उनके विद्यालयीन आवश्यकता तक ही सीमित नहीं रहती है बल्कि जीवनपर्यन्त अनुभवों की आत्मानुभूति कराने में सहभागिता निभाती है। मातृभाषा अपनी संस्कृति, लोककला, परंपरा इत्यादि अनेक जीवनमूल्यों का आधार होती है जिससे कोई भी व्यक्ति वंचित नहीं रह सकता है। बच्चे अपनी कला, अपनी संस्कृति, अपनी मातृभाषा के माध्यम से ही आत्मसात करते हैं। वे इन सब में प्रत्यक्ष रूप से स्वयं को स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा के आरंभिक काल में बच्चों की अपनी भाषा मौखिक रूप ही होती है। यदि उनकी भाषा उन्हें लिखित रुप में पाठ्यसामग्रियों में मिलने लगती हैं तो वे बड़ी आत्मीयता के साथ आगे बढ़ते जाते हैं। शिक्षण में आने वाली रूकावटें उनके लिए मायने नहीं रखती यदि वह उनकी भाषा की उपस्थिति वहाँ है। इसमें संदेह के लिए कोई स्थान ही नहीं है कि बच्चे अपनी भाषा के साथ अन्य भाषाओं को नहीं सीख सकते हैं। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि हम सब अपनी मातृभाषा की सहायता से ही अन्य सभी कार्य बड़ी कुशलता से कर सकते हैं। विद्यालय में प्रवेश के समय प्रत्येक बच्चे के पास उनके घर की भाषा रहती है। उनके साथ ढेर सारी जानकारियों का पिटारा होता है। घर, परिवार, समाज की अनेक गतिविधियों का ज्ञान उनके स्मृति पटल पर अंकित होते हैं। बच्चों का बाल मस्तिष्क कभी शून्य नहीं रहता है, उनके पास उनकी मातृभाषा में गीत, कविता, कहानी आदि के रूप में विशाल शब्द भंडार निहित होता है। यदि उन्हें एवं उनकी मातृभाषा को कक्षा में सम्मान के साथ स्थान मिलता है तो वे मुखर होकर अपनी बात रखते हैं। अपनी भाषा की साझेदारी में इनकी भागीदारियाँ इनके शिक्षण की प्रत्येक गतिविधि में अधिक अच्छा होना सुनिश्चित करती है।
एक साकारात्मक दृष्टिकोण और तनाव रहित वातावरण चिर-परिचित भाषा की उपस्थिति में ही संभव है, अपरिचित भाषा में कदापि नहीं और मातृभाषा से हम परिचित होते ही हैं। अन्य भाषाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करने में मातृभाषा की आधारभूत भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इस बात का समर्थन करती है कि बच्चों की बुनियादी शिक्षा उनकी अपनी परिचित भाषा में ही हो। यहाँ पर परिचित भाषा का अभिप्राय उनकी मातृभाषा से है। यदि बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं मिल पाती तो वह निराश और कुंठित हो विद्यालय से पलायन कर जाते हैं। बच्चों की भाषा को प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रमों में अवश्य स्थान मिलनी चाहिए। शिक्षा के विभिन्न सोपानों को सफलतापूर्वक तय करने के लिए मातृभाषा एक जादुई चिराग की भाँति असरदार युक्ति है। राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण भी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की वकालत करती है। मातृभाषा में शिक्षण का तात्पर्य है बाल केन्द्रित शिक्षा पद्धति। इस प्रकार की पद्धति में समस्त क्रियाओं का केन्द्रबिन्दु बच्चे होते हैं और शिक्षक सुविधादाता की भूमिका का निर्वहन करते हैं। मातृभाषाओं में विविधताएँ होते हुए भी यह राजकीय एवं राष्ट्रीय भाषाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है क्यों यह मानसिक कम आत्मिक अधिक है। नई शिक्षा नीति ने भी मातृभाषा के साथ बहुभाषा द्वारा प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान रखा है। मातृभाषा में शिक्षा व्यवस्था अनेक देशों में पहले से ही लागू है। भारतीय परिदृश्य में देखें तो मातृभाषाएँ भी अनेक हैं, यहाँ तक कि एक विद्यालय के एक ही कक्षा में एक से अधिक मातृभाषा बोलने वाले विद्यार्थी एक साथ अध्ययन करते हैं। ऐसी भाषाई परिस्थितियों में शिक्षक द्वारा एक मिलीजुली भाषा जिसे ‘लिंक भाषा’ कहते हैं, इसका उपयोग कर शिक्षण कार्य करते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था को हम बहुभाषी शिक्षण भी कह सकते हैं। इन सबके पीछे का एकमात्र उद्देश्य है कि बच्चों की भाषाओं को शिक्षण में समायोजित कर शिक्षा की मुख्य धारा से जुड़ाव करवाना। बच्चे अपने घर, परिवार व समाज की भाषा के साथ विद्यालय आएँ और अन्य भाषाओं में विषयगत दक्षता सफलतापूर्वक हासिल करें। इन विचारों का सार यही है कि विद्यार्थियों को प्राथमिक कक्षाओं में उनकी मातृभाषाओं को आलंबन की भाँति प्रयोग कर ही शिक्षा के उच्च शिखर तक पहुँचाया जा सकता है। मातृभाषा में शिक्षण व्यवस्था से बच्चा आवश्यकता अनुसार अपनी भाषा का प्रयोग करते हुए अन्य भाषाओं को सहजता से सीखेगा। इस व्यवस्था का मूल उद्देश्य बच्चों को उनकी अपनी भाषा सिखाने की नहीं वरन उनके मातृभाषा के सहयोग से अन्य प्रमुख भाषाओं के रोचक एवं मनोरंजक ढंग से सिखाना है।

लेखन- डॉ. कन्हैया साहू ‘अमित’
सहायक शिक्षक
शास. प्राथ. विद्या. लमती
वि.खंड भाटापारा, जिला बलौदाबाजार
छत्तीसगढ़ 493118
चलभाष 9200252055
ई.मेल ps.lamti.101@gmail.com

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