सीता कहे दर्द
सीता कहे दर्द
बड़ी दर्द भरी मेरी कहानी।
अँखियो में ला दे सबकी पानी।।
जिनके लिए धरा पर थी आई।
उन्हीं के द्वारा गई सताई।।
वन को गई थी मैं प्रभु जी संग।
रंग कर प्रभु की प्रीति-भक्ति रंग।।
सृष्टि हितार्थ अग्नि में समाई।
मेरी छाया मेरा पद पाई।।
दुष्ट रावण छाया को चुराया।
रघुनाथ ने फिर उससे छुड़ाया।।
अग्नि से बाहर गई मैं लाई।
हुआ वातावरण फिर सुखदाई।।
खुशी-खुशी अयोध्या में पग धरी।
छाई राजतिलक की खुशी बड़ी।।
बीती थी आनंद की कुछ घड़ी।
शुरू हो गई फिर दुःखों की झड़ी।।
ऊंगली उठा चरित्र पर एक दिन।
“रही ये लंका में रघुनाथ बिन।।
मैला मन इसका, मैला चोला।
ले आया राघव, कुछ ना बोला।।”
अवध में मेरे चरित्र पर लांछन।
सुनकर ,दुःखी हुआ राघव का मन।।
“सीता सती है ,मैं जानता हूँ।
मेरा रूप ,मैं पहचानता हूँ।।”
सिंहासन हो रहा था बदनाम।
रहा न यहाँ मेरा कोई काम।।
वन में रही छोड़ कर राजमहल।
प्रभु का हिय गया निर्णय से दहल।।
जन्मी वहाँ रघुकुल दीपकें दो।
उठा दिए ऊंगली उस पर भी लो।।
सह न सकी मैं और अत्याचार।
पुकारी धरती माँ को इस बार।।
भूल नहीं मेरी कोई माते।
जगत वासी हैं लांछन लगाते।।
जो मैं सती राघव श्री राम की।
समा लो स्वयं में, हे माता श्री!!
प्रकटी माता सुन करूण क्रंदन।
समायी मैं तोड़ नाते-बंधन।।
बड़े स्वार्थी हैं धरा के लोग।
कहते “हम ही करें सब सुख भोग”।।
सत्य प्रमाण सतीत्व का दे गई।
घाव हृदय में लेके चली कई।।
सोची अब कभी नहीं आऊँगी।
प्रभु बिना रह भी तो न पाऊँगी।।
रचयिता -श्रीमती सुमा मण्डल
वार्ड क्रमांक 14 पी व्ही 116
नगर पंचायत पखांजूर
जिला कांकेर छत्तीसगढ़