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बड़ी वाली अलमारी

बड़ी वाली अलमारी

गर्मी की छुट्टी हो चुकी है। भाभी और भैया कई बार घर आने के लिए फोन कर चुके हैं।
मन तो उसका भी है पर घर में बिखरे कई कामों को निपटाने का मौका छुट्टी मे ही मिल पाता है। इसलिए कुछ छुट्टी घर पर बिताने के बाद ही मायके जाने का प्रोग्राम बना रही थी।
मायके में भी भाभी उसका बेसब्री से इंतजार करती थीं। वहाँ भी भाभी उसके के साथ मिलकर कई काम निपटाती थीं।
इस बार जब वह घर पहुँची तो भाभी वो पुरानी बड़ी वाली अलमारी उसके साथ मिलकर साफ करने के लिए रख छोड़ी थी।
वह अलमारी माँ की थी। यादों के कितने खजाने धरोहर की तरह उस अलमारी में पड़े हुए थे।
जब माँ अलमारी खोलती थी तब हम तीनों भाई बहन घेरकर खड़े हो जाते थें। कुछ न कुछ हमें जरूर मिलता था। हमारी पसंद की चीज माँ कब लाकर रखती थी यह कभी पता नहीं चलता था। पर जरूरत की हर चीज हमें जरूर वक्त पर जरूर मिल जाती थी।
हमारा जन्मदिन हो या विद्यालय का कोई विशेष दिन छोटी से बड़ी चीज,माँ उसी अलमारी से हमें आवश्यकतानुसार निकाल कर देती थी।
हमारे लिए वो भानुमती का पिटारा से कम नहीं था।
वैसे घर के कोने कोने में माँ की याद और स्पर्श बसी हुई है पर उस अलमारी के साथ हमारी सुखद स्मृति जुड़ी हुई है। माँ के साथ उस अलमारी के पास जाने से जो खुशी मिलती थी वो अवर्णनीय है।
माँ के पास पूरा घर था उसका पर पता नहीं क्यों उस अलमारी से उसे इतना लगाव, इतना अपनापन था।
पूरे घर में शायद वह अलमारी उसे सबसे अधिक अपना लगता था। सभी चीजों पर सबका हक था पर उस अलमारी पर अकेला माँ का हक था। उसके लगाव का शायद यही कारण रहा होगा।
उसके जीते जी कभी किसी ने उसे नहीं खोला। हमें कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी।
मै और भाभी जब उस अलमारी को खोलने चले तो मेरे हाथ उसके हैंडल को टटोल रहे थें जैसे मैंने माँ को छू लिया हो।

सारी चीज ज्यों की त्यो पड़ी थी। मेरे और भाई के बचपन के स्वेटर, खिलौने, हमारी ड्राइंग की काॅपी, रुद्राक्ष की वह मोती जिसे माँ हमारे गले पहनाती थी। बड़े होने पर जिसे हमने उतार फेका था माँ ने उसे सहेज रखा था।

पहली बार जिस ऊन कांटा से मैंने फंदे डालना सीखा था वह वहाँ पड़ा मुझे मेरी माँ के उस धैर्य की याद दिला रहा जो मुझे सीखाते समय उसने रखी थी। बार बार मेरे द्वारा फंदे में गांठ डाल देने, ऊन तोड़ देने पर भी कभी कोई खीज नहीं।
आज हम तुरंत अपने बच्चों से परेशान हो जाते हैं। तुंरत परिणाम पाने की जल्दीबाजी कर बैठेते हैं। पर माँ को मैंने कभी ऐसा करते नहीं देखा।
पहली बार जिस तकिये के खोल पर मैंने कढ़ाई की थी, वह प्रैक्टिकल काॅपी जिस पर मैंने छोटे छोटे नमूने बना कर चिपकाएं थें।
मेरी पहली कक्षा से लेकर आठवीं तक के सारे रिजल्ट कार्ड, और कक्षा में प्रथम, द्वितीय आने के कारण विद्यालय में स्कूल दिवस पर मिलने वाले पुरस्कार के वो रैपर जिसपर स्टीकर चिपका कर मेरा नाम, रैंक आदि लिखा होता था जिसे मैं खोल कर पुरस्कार निकालने के बाद फेक देती थी वह भी तह कर रखा हुआ था।
वह आटोग्राफ बुक जिसमें दसवीं कक्षा के अंतिम महीने में अपने दोस्तों से ली गई आटोग्राफ सुरक्षित थी, माँ ने उसे सुरक्षित रखा था। माँ को पता था कि मैंने कितने चाव से अपने दोस्तों से लिया था। बड़े होने के साथ कहीं रखा रह गया था और माँ ने उसे संभाल कर इसी अलमारी में सहेज रखा था।

मेरे दिल में हलचल मच रही थी।आँख की नमी चीजों को धूंधला कर रही थी। हमारी स्मृतियों को सहज ही सहेज, इस अलमारी में रख कर इसे खजाना बना दिया।

माँ तुम्हें सब पता था कि यह सब अनमोल हैं। वक्त के साथ हम इसका महत्व समझ पाएंगे ये भी तुम्हें पता था। तुम्हें यह भी पता था माँ कि यह सब चीजें मुझे कितनी खुशी देगी।

हम और हमारी चीजें, हमारी स्मृति, हमारी खुशियाँ कितनी महत्वपूर्ण थी माँ तुम्हारे लिए।

तुम भी हमारे लिए अत्यंत अनमोल थी। यह हम तुम्हें कहाँ बता पाए कभी।

गीली आंखों के साथ अपनी अनमोल स्मृतियों को समेटकर मैं अपने साथ ले आई एक और ऐसी ही बड़ी वाली अलमारी तैयार करने के लिए।

गीता राज

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