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लघुकथा: संवेदना शून्य

लघुकथा: संवेदना शून्य

“आह!” रीमा की चीख गूँजी।
“क्या हुआ बहू?” माला भागी- भागी रसोई में आई।
देखा तो बहू रीमा पाँव को पकड़े कराह रही थी। पास ही खौलते तेल की कड़ाही औंधी पड़ी थी। तेल धीरे-धीरे बहता हुआ ढलान की तरफ जा रहा था। माला समझ गई कि पकौड़े तलते हुए असावधानीवश कड़ाही गिर गई और दो महीने पहले ही ब्याह कर आई नई-नवेली बहू का पाँव जल गया है। माला ने सहारा देकर रीमा को बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठाया और एक बड़े टब में ठंडा पानी लाकर रीमा का पाँव उसमें डाल दिया और फटाफट जाकर बरनॉल ले आई।
“क्या हो गया दीपू की बहू?”कमरे से लाठी टेकती माला की सास बाहर आई।
“अम्मा! रीमा का पाँव जल गया है।” माला ने ज़वाब दिया।
“तो तू क्या कर रही है?” सास की आवाज़ में ठसक थी।
“अम्मा! बरनॉल लगा दूँ उसके पाँव पर वरना फफोले पड़ जाएँगे” माला बोली।
” हाँ! हाँ! कर ले चलित्तर इसके। बाद में तेरे सिर चढ़कर नाचेगी।”सास व्यंग्य से बोली, ” यूँ तो रसोई में काम करते जरा बहुत जल-कट जाया ही करता है। अपनी भूल गई क्या तू? कितनी बार जली- फूँकी है।”
“याद है अम्मा इसीलिए मेरी संवेदना अभी बाकी है।” माला ने कहा तो संवेदना शून्य सास में मुँह फेर लिया।”

डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश

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