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लघुकथा: अपना घर

लघुकथा: अपना घर

“मेरी लाडो रानी को क्या ख़ास तोहफ़ा चाहिए अपने पापा- मम्मी से अपनी शादी में।” राजेशजी बहुत खुश थे। अपनी सुशिक्षित, सुंदर, सुघड़ बिटिया के लिए उसके समकक्ष घर-परिवार मिलने की ख़ुशी में राजेशजी मानो दिव्या को जहाँ भर की ख़ुशियाँ दे देना चाहते थे।
“पापा! अगर आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मैं चाहती हूँ कि आप मुझे न महंगे जेवर दें न महंगे कपड़े। कोई बहुत बड़ी दावत भी न दें। बस मुझे शादी में उपहारस्वरूप दो बेडरूम का फ्लैट दिला दें।” दिव्या ने राजेशजी का हाथ थामते हुए कहा।
“पागल हो गई हो क्या? भला ऐसा भी कहीं होता है? शादी से पहले ही अलग रहने के बारे में सोचती हो।”राजेश जी बौखला गए।
“नहीं, पापा! परिवार से अलग नहीं रहना चाहती पर मम्मी की तरह गेंद बनकर भी नहीं रहना चाहती। आप और दादी कभी भी गुस्से में मम्मी को कह देते हो कि चली जा अपने घर और नानाजी तथा मामाजी कुछ दिनों बाद मम्मी को यह कहकर यहाँ वापस छोड़ जाते हैं कि बेटी अपने घर में ही अच्छी लगती है। पापा मैं चाहती हूँ कि भविष्य में यदि कभी ऐसा मेरे साथ हो तो मैं आत्मसम्मान के साथ अपने घर में रह सकूँ।” दिव्या ने कहा तो राजेश जी ने चुप होकर अपनी आँखें दूसरी ओर कर लीं।

स्वरचित ✍️
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश

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