प्रकृति भी रो रही है
‘प्रकृति भी रो रही है’
पर्यावरण की इस दूषित हवा में,
देखो कैसे ये प्रकृति रो रही है?
देखो फैक्ट्रियों से निकलते धुँएँ से,
कैसे प्रकृति ये प्रताड़ित हो रही है?
अब मानव में मानवता रही नहीं,
ये देखकर प्रकृति अब रो रही है।
इस प्रकृति के दुश्मन हैं हम इंसान,
तभी तो ये प्रकृति लुप्त हो रही है।
इंसानों की मनमानी से प्रकृति मौन है,
आत्मसमर्पण समक्ष इनके हो रही है।
रोज अंधाधुंध पेड़-पौधों की कटाई से,
हवा में बीमारी अब नित फैल रही है।
बेबस, लाचार प्रकृति अब तो कवि की,
कविता में सुध-बुध खो कर सज रही है।
अब तो मात्र कवि ही बना इसका सहारा,
कवि की नज़रों में ये खुदको बिछा रही है।
ग़र है तुम्हें इस प्रकृति से बेहद प्रेम,
तो चलो मिलके हम सब वृक्ष लगाएँ।
हरे-हरे पेड़-पौधे लगाके धरा सजाएँ,
इस प्रकृति को स्वर्ग से भी सुंदर बनाएँ।
संदीप कुमार ‘विश्वास’
रेणु गाँव, औराही-हिंगना
फारबिसगंज, अररिया-बिहार
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