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गांव कहीं अब न सपना बने

गांव कहीं अब न सपना बने

गांव अपना कहीं अब न सपना बने,
घर बना लो सभी अपने ही गांव में।
शहरों में कमाई बहुत हो चुकी,
उम्र के इस पड़ाव पर चलो गांव में।

थे बचपन की बातों में सपने बहुत,
गांव छोड़ा था उनके लिए आपने।
थक गए हो जवानी बीता कर यहां,
चलो लौट कर अपने ही गांवों में।

राह द्वारें पर मां की निगाहें लगी,
मिलने की चाह में उस की सांसें लगी।
क्या लाये हो उसे इस से मतलब नहीं,
वह चाहती है रहो निगाहों की छांव में।

आनंद गांवों का मिलता नहीं हैं कहीं,
वह मठा वह मख्खन मां बिलोती दही।
रिश्तों की वह मिठास शहर में नहीं,
अमराई की छांव किसी शहर में नहीं।

टूटते परिवारों का जमघट है शहर,
मान पैसे का होता यहां पर बहुत।
रात और दिन कमाने से फुर्सत नहीं,
गांव अपना कहीं अब न सपना बने।

बचपन बुढ़ापा दोनों एक से,
कूदते फांदते थे नहर और गली।
वे चाचा वो चाची अम्मा और भाभी,
वे दादा और दादी सभी गांवों में।

सारे रिश्तों की सूची बचि गांव में,
चलो लौट कर समय है अभी।
गांव अपना कहीं अब ना सपना बने,
घर बना लो सभी अपने ही गांवों में।

कमल नारायण सिंह
अंकलेश्वर गुजरात

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