सबसे सुंदर झांकी
सबसे सुंदर झांकी
दिखलाऊं मैं तुम्हें जगत की, सबसे सुंदर झांकी।
बहुत पुरानी धुंधली सी, तसवीर ये मेरी मां की।।
एक छोटा सा गांव जहां पर ,नाना- नानी रहते थे
अक्सर मुझसे मेरी मां की,राम कहानी कहते थे
पास में वो थी पूजा जैसी, दूर से एक अजां थी।
भोर के जैसा रूप था उसका,संध्या जैसी काया थी
थी लौकिक पर उसके भीतर,एक अलौकिक माया थी
उसके जैसी इस धरती पर, कोई और कहां थी?
इस जीवन की बगिया में वो,हर दिन फूल खिलाती थी
रामायण की चौपाई और, भगवत् गीता गाती थी
वो पूजन के बाद हवन से, उठता हुआ धुंआ थी।
नियमों के अनुसार एक दिन, उसके पीले हाथ हुए
मेहनतकश दो हाथ कला के,उन हाथों के साथ हुए
जहां-जहां वो हाथ गए , वो उनके साथ वहां थी।
धन्य हुआ मैं उस दिन जिस दिन,उसने मुझको जन्म दिया
अवतार हो मां तुम किस देवी का,एक दिन मैंने प्रश्न किया
वो बोली मैं अब भी ‘मां’ हूं , और पहले भी मां थी।
इसी तरह से धीरे-धीरे , उसने एक संसार रचा
और नहीं कुछ पास में उसके, केवल प्यार ही प्यार बचा
‘झील’थी वो जिसमें ममता की,एक – एक बूंद जमा थी।
जबतक वो थी तब तक घर में, सुख ही सुख की बातें थी
चांदी जैसे दिन होते थे , सोने जैसी रातें थी
जो भी चाहा मांगा उससे , उसकी सब में ‘हां’ थी।
एकदिनउसने ‘आत्मकथा’ के,अंतिम अक्षर लिख डाले
उसके नीचे ‘इति’ लिखा और,अपने दस्तखत कर डाले
यह कहकर सब मिलकर रहना , उसकी बंद जुबां थी।
उम्र अधूरी रह गई उसकी , सांसो का क्रम टूट गया
वह आकाश जो मुट्ठी में था , उस दिन हमसे छूट गया
ये रिश्ते-नाते सभी सजा थे , केवल वही ‘क्षमा’ थी।
इसकी झांकी उसकी झांकी, सब की झांकी अमर रहे
चाहे सब कुछ मिट जाए पर , मूरत ‘मां’ की अमर रहे
हर ‘मां’ के भीतर छुपी हुई है , शक्ति एक जहां की।
विजय विश्वकर्मा
जबलपुर मध्यप्रदेश