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रंगोत्सव

रंगोत्सव

होली पर्व मधुर मंगलमय,
जनजीवन-उपकारी है।
नर के भावलोक का शोधक,
सर्व स्वास्थ्य-हितकारी है।।
पावक-ज्वाला जब होली की,
ऊर्ध्वमुखी लहराती है।
मन के ऊपर की परतों के,
सहज विकार जलाती है।।
अगले दिन जब रंगोत्सव की,
धूम चतुर्दिक मचती है।
आदिम नैसर्गिक दुनिया में,
नर की वृत्ति उतरती है।।
पुनः सभ्यता-जन्य लाज भय,
शंका आदिक बन्धन में।
बॅंध कर जो मन-वेग हठीले,
रहते दबे गहन मन में।।
होली के हुड़दंग खींच कर,
बाहर उनको करते हैं।
जिससे कुंठा-जन्य व्याधि से,
बचे सभी जन रहते हैं।।
“खुल कर प्राकृत जीवन जीयो”
होली हमसे कहती है।और विरेचन-क्रिया-सहारे,
शोधन मानस करती है।।
शुद्ध स्वस्थ मन के रहने से,
रोग – रहित तन रहता है।
फागुन भर नर फाग मना कर,
विविध व्याधि से बचता है।।
इसीलिए मिल हमको पावन,
होली – पर्व मनाना है। मर्यादा में रंग लगाना,
और गुलाल उड़ाना है।।
ऐसी होली खेलें मन की ,
साध न मन में रह जाए।
हो टेन्शनमुक्त स्वयं हम जग-
को टेंशन – मुक्त बनाऍं।।

होली का उल्लास न मन में,
बंदी बन रह जाए।
तोड़ स्वार्थ की कारा काली,
संसृत भर लहराए।।

डॉ मिथिलेश कुमार त्रिपाठी
प्रोफेसर हिन्दी विभाग
स्नातकोत्तर महाविद्यालय पट्टी
प्रतापगढ़ – उत्तर प्रदेश

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