आ जाओ मनभावन सावन बसुंधरा के सोलह श्रृंगार
आ जाओ मनभावन सावन बसुंधरा के सोलह श्रृंगार
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार ।
रूठें बादल अब बरस रहे, पड़ने लगी रिमझिम फुहार,
जड़ चेतन सब प्यासें, प्यासी प्रियतमा कर रही पुकार ,
मुंडेर पर कागा बोलते, झुरमुट से कोयल गाती मल्हार ,
घर,आंगन, उपवन और निर्जन वन में छाने लगी बहार,
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार।
झूमते पीपल,पाकड़, बुढे वटवृक्ष, हर्षित सकल संसार ,
बरसते बादल की बूंदें तप्त धरा पर कर रही मधुर प्रहार,
ताल तलैया सरोवर इतराते,पुरवाई पवन पथ रही बुहार,
तन,मन,बदन भींगा, यौवन में खुल रहा अजब खुमार,
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार ।
काले,भूरे , कजरारे बादलों में चल रही मिठी तकरार,
अमृतमय वर्षण से प्रकृति में आया अलौकिक निखार ,
लुक-छिप सूरज,चंदा, तारे,अंनत गगन सब रहे निहार ,
सृष्टि लग रही सुहागिन, सज धजकर और रूप संवार ,
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार।
प्रेम विथिका,मिलन वाटिका,प्रणय डगर कर रहे गुहार,
तदीतट, तरूवर, पर्वत, पनघट करते निश्छल मनुहार,
यौवन में अद्भुत अंगड़ाई, हृदय व्याकुल और बेकरार ,
बाग़ बगीचे छोरा-छोरी झूला सब तेरे स्वागत में तैयार,
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार।
खेत खलिहान सिवान नटखट बचपन को तेरा इंतजार,
तेरे कारण मौसम लेता करवट, कर रहा नखरें हजार,
पवन झकोरे लेते हिचकोले, दिल पर चुभती कटार,
बिरह व्यथा में घायल बिरहन मन को चीरती तलवार,
आ जाओ मनभावन सावन, बसुंधरा के सोलह श्रृंगार।
मनोज कुमार सिंह
लेखक/ साहित्यकार/ स्तम्भकार