ये जंगल तुम कितना खूबसूरत हो,
ये जंगल तुम कितना खूबसूरत हो,
तेरे बाहों में झूल जाने को जी चाहता है,
तेरे सीने पर स्थित गगनचुंबी पहाड़ियां,
उनसे लिपट जाने को जी चाहता है।
तेरी वादियों में सदा निवास करने को जी चाहता है,
तेरे सानिध्य में जीवन का सार खोजने को जी चाहता है।
*तेरे गुलसिता में पक्षियों का कलरव, भंवरों का गुंजन,*
उनसे मिलकर सुर में सुर मिलाने को जी चाहता है,
पलास और महुआ आदि पुष्पों का भीनी-भीनी सुगंध,
जिसमें अपनी मन को बेसुध कर देने को जी चाहता है।
कुहू-कुहू की स्वर-लहरी में डूब जाने को जी चाहता है,
प्रकृति के रंग-बिरंगे आंचल में खो जाने को जी चाहता है।
*तुम्हारी बागों की डालियों पर लचकती चांदनी,*
जहां मदहोश हो जाने को जी चाहता है,
तुम्हारे आगोश में बसंती पुरवइया बयार के सन-सन में,
बावरा होकर झूमने को जी चाहता है।
चांदनी की छाँव में सपने सजाने को जी चाहता है,
तेरे दामन में मन को मुक्त करने को जी चाहता है।
*तुम्हारे चमन में खिल-खिलाती कलियों को,*
गले लगा के चूमने को जी चाहता है,
अटखेलियां करते बदलो के झुंड के नीचे,
तलहटियों पर बैठ, कुछ गुनगुनाने को जी चाहता है।
फूलों की कोमलता को अपने हृदय में बसाने को जी चाहता है,
प्रकृति के इस महफिल में तेरी धुन में डूब जाने को जी चाहता है।
*ये जंगल तुम कितना खूबसूरत हो,*
तेरे बाहों में झूल जाने को जी चाहता है,
तेरे सीने पर स्थित गगनचुंबी पहाड़ियां,
उनसे लिपट जाने को जी चाहता है।
तेरी सुंदरता में ही जीवन का अर्थ ढूंढने को जी चाहता है,
तेरे साथ एक अनंत यात्रा पर निकलने को जी चाहता है।
डा. अभिषेक कुमार
साहित्यकार, प्रकृति प्रेमी व विचारक
मुख्य प्रबंध निदेशक
दिव्य प्रेरक कहानियाँ मानवता अनुसंधान केंद्र