बा और बापू
बा और बापू
– गोवर्धन थपलियाल
यह सर्वविदित है कि कस्तूरबा अपने पति मोहनदास से आयु में बड़ी थी। सात वर्ष में सगाई और चौदह वर्ष में विवाह के बंधन में बंधी कस्तूरबा अपनी सास पुतलीबाई की तरह न तो व्यवहार कुशल थी और न ही वाक्पटु। पढ़ाई लिखाई से वह कोसों दूर रही। उसने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। ससुराल में घूंघट में रहते हुए उसको सिर्फ चौका-चूल्हा संभालना, घर गृहस्थी चलाना ओर पति के इशारों पर चलने की शिक्षा मिली थी। वह उस समय निपट निरक्षर थी। बाल्यवस्था का विवाह था, मोहन बा को बेहद प्यार करते थे। बा भी पति के प्रति समर्पित रहते हुए मोहन के प्रेम जाल में उलझी रही। अपनी माता की सामाजिक हैसियत को देखते हुए मोहन इतना तो चाहते ही थे कि बा को कम से कम अक्षर ज्ञान तो होना ही चाहिए। उनकी मां के समान विदुषी न भी हो तो भी पत्र लिखना पढ़ना तो आना ही चाहिए। इसके लिए उन्होंने बा को घर पर पढ़ाने की व्यवस्था भी कर दी। किन्तु घूंघट की ओट में पढ़ाई कैसे हो सकती थी, उस पर पारिवारिक बंधन, इसलिए बा ने पढ़ाई की तरफ कोई रुचि नहीं दिखाई। मोहन ने बा को अनेक बार ताने मार कर यह अहसास कराया कि वह अनपढ़, गंवार व मूर्ख है, किन्तु बा ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि तब का परिवेश ही ऐसा था। महिलाओं को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। बार-बार ताड़ित होने पर भी उन्होंने मुंह नहीं खोला। स्वतंत्रता आंदोलन की आग धीरे-धीरे सुलग रही थी। अंग्रेज सरकार ने इसे कुचलने के लिए नेताओं और उनके परिजनों को जेल भेजना शुरु कर दिया। बा को भी जेल भेजागया किंतु जेल जाना उसके लिए वरदान सिद्ध हुआ। जिस जेल में बा को रखा गया, उसीमें एक किशोरी सो. लाभु बहन को भी रखा गया था। जेल अधिकारी उससे अत्यधिक काम लेते थे। बा को उसकी स्थिति पर तरस आता था। इसलिए बा उसके काम में हाथ बंटाने लगी और वह खाली समय में बा को पढ़ाने लगी। बा की रुचि भी जागी और वह दिल लगा कर पढ़ने लगी। उसने जेल से ही अपने पति को पत्र लिखा। पहले तो मोहन को यकीन नहीं हुआ, पर बाद में उसने अपनी प्रसन्नता और उस किशोरी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जिसने वह कर दिखाया, जो मोहन न कर सके।
यह बात भी किसी से छिपी नहीं हे कि मोहन दक्षिण अफ्रीका एक वकील के रूप में वहां रह रहे भारतीय श्रमिकों के मुकदमे की पैरवी करने गए थे। उनका पूरा समय कोर्ट कचहरी के चक्कर में कटता था। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की वास्तविक स्थिति तो बा ने पहचानी। जब बा दक्षिण अफ्रीका गई तो वहां उन्हें भारतीयं समाज से मिलने का मौका मिला। उनकी पीड़ा को अनुभव किया, उनके साथ अमानवीय व्यवहार को समझा और उसका प्रतिरोध करने की मन में ठान ली। भारतीय समाज को एकजुट करने के लिए उन्होंने फिनिक्स नाम का एक आश्रम खोला और पीड़ित, शोषित, पद दलित समाज की सेवा में जुट गई। बाद में मोहन भी इसी आश्रम से जुड गए। मोहन जन्म से ही साफ-सफाई के प्रति काफी सचेत रहते थे और अपने हाथों से मल-मूत्र उठाने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे। बा को भी स्वेच्छा अथवा अनिच्छा से वही सब-कुछ करना पड़ता था जो मोहन चाहते थे। बा के प्रयासों से ही मोहन के मन को आंदोलित किया। असहयोग की प्रणेता बा ही थी।
भारत लौट कर बा घूंघट वाली बा नहीं रह गई थी। अपने संस्कारों में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी आवाज को धारदार बना दिया था।
9 अगस्त, 1942 को, जब मोहन जो अब तक गांधी के नाम से विख्यात हो गये थे, शिवाजी पार्क में एक सभा को संबोधित करना था सव आयोजन से दो दिन पहले ही उन्हें कैद कर लिया गया। उस सथा आयोजकों को कुछ सुझाई नहीं दे रहा था कि अब क्या करें। ऐसे में वा आगे आई और उन्होंने शिवाजी पार्क की सभा को संबोधित किया। वा के संबोधन ने अंग्रेजी सरकार की चूलें हिला दीं। उनको वहीं उसी क्षण गिरफ्तार करके आगा खां जेल भेज दिया गया। वहीं वा की तबीयत
बिगड़ गई और फिर वह कभी ठीक नहीं हो सकी। बा के त्याग, तपस्या, पति परायणता ने ही मोहनदास गांधी को बापू बनाया।