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आलोचना संसार

आलोचना संसार

किसी व्यक्ति के द्वारा किए गए कार्य में दोष निकालकर उनका बखान करना आलोचना कहलाता है और किसी व्यक्ति के गुण-दोष दोनों को अच्छी तरह से देख-परख कर बतलाना या‌ उस पर टिप्पणी करना समालोचना कहलाता है।
वैसे तो आलोचना या समालोचना जीवन के हर क्षेत्र में नज़र आती है।‌‌ क्योंकि इसमें नाते-रिश्तेदार, आस-पास रहने वाले लोग, समाज के वरिष्ठ जन एवं राजनीतिक पार्टी के नेता आदि कोई भी किसी व्यक्ति या समूह की आलोचना का शिकार हो सकता है। जैसे कि हम अक्सर देखते हैं–
जहाँ चार महिलाएँ या पुरुष एकत्रित होते हैं, तो वहाँ पर किसी न किसी की भलाई-बुराई से सम्बंधित उनका निंदा पुराण रस चालू हो जाता है। आलोचना करने और सुनने वाले दोनों को इसमें एक अलग प्रकार का आनंद मिलता है।‌ जैसे किसी महिला के आचरण को लेकर एक महिला-
“हाय राम! कैसा जमाना आ गया है? हमारी पड़ोसन मीना तो पता नहीं रोज सुबह कहाँ जाती है?, अँधेरा छा जाने पर घर लौटती है। पीछे से उसकी सास घर और बच्चे सम्भालती है।”
दूसरी -उसके सुर में सुर मिलाते हुए — “अरे हाँ बहना! ये तो सच कहा आपने..जबसे उसके पति की मौत हुई है.. तबसे उसे कोई रोकने-टोकने वाला नहीं रहा। न जाने अकेली कहाँ-कहाँ मुँह मारती फिरती है।”
अब बताइए ऐसी फालतू आलोचना करने वाले यह क्यों नहीं सोचते- अब उसके घर में कमाने वाला कोई पुरुष नहीं रहा, तो सास माँ और नन्हें बच्चों का पेट पालने की खातिर वो बेचारी कहीं नौकरी करने जाती होगी। घर- परिवार का निर्वाह करने के लिए, चार पैसे कमाने की खातिर न जाने मालिक की कितनी गालियाँ उसे खानी पड़ती होंगी। किंतु चलिए, यह तो रोजमर्रा के जीवन की बात थी।‌

सच में तो आलोचना और समालोचना का साहित्य जगत में सबसे बड़ा स्थान होता है। साहित्य में हम इसे समीक्षा, विवेचना आदि नामों से भी जानते हैं। इसलिए साहित्य के क्षेत्र में आलोचक और लेखक की रचना का चोली दामन का साथ होता है। आजकल सोशल मीडिया वाट्स एप, फेसबुक एवं नेटवर्किंग बेब साइट पर कवि सम्मेलन की आडियो एवं वीडियो, पाठकों एवं श्रोताओं के पढ़ने- सुनने के लिए बहुत सारा साहित्य उपलब्ध रहता है। वाट्स एप एवं फेसबुक पेज पर जब किसी संस्था या पटल द्वारा विषय दिया जाता है तो लेखन सीखने के इच्छुक नवांकुर एवं वरिष्ठ साहित्यकार आदि सभी दिए गए विषयों पर अपनी लेखनी चलाते हैं। तब मंच के श्रेष्ठ वरिष्ठ समीक्षक समालोचक उसको अच्छी तरह से पढ़ते हैं और पढ़ने के बाद फिर रचना के गुण-दोष पर चर्चा करते हैं या टिप्पणी करते हैं। तब इसके दो लाभ होते हैं। एक तो विवेचना के आधार पर पाठकों में अच्छी रचनाएँ पढ़ने का उत्साह बढ़ता है। दूसरे लेखक को अपनी रचना के गुण-दोष का पता चलता है।‌ तब वह रचना में सुधार करके दोष को निकालते हैं और‌ लेखन सुधार लेते हैं। इसके कारण सीखने के इच्छुक साहित्यकार धीरे-धीरे गलती कम करते हैं और उनके लेखन में शनै:- शनै: सुधार होता है। वैसे तो सभी लेखकों को अपना लिखा हुआ बहुत अच्छा लगता है। इस विषय में बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी यही कहते हैं-

“निज कविता केहि लागे न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।” अर्थात् रसीली हो या फीकी अपनी लिखी रचना किसे अच्छी नहीं लगती।

वैसे ऐसे अति आत्मविश्वास के कारण कुछ लेखक आत्म मुग्धता के शिकार हो जाते हैं। जिसके कारण बहुत बार समीक्षक की टिप्पणी पढ़कर कुछ लेखक आहत महसूस करने लगते हैं। अपनी आलोचना से वह इतने अधिक पीड़ित हो जाते हैं, जैसे उन्हें जहरीले ततैयों ने काट लिया हो। तब वे अनर्गल बातें करके समीक्षक द्वारा की गई समीक्षा में दोष ढूँढनें का प्रयास करते है। ऐसे में वे समीक्षक को अपमानित करने के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि मैंने जो लिखा है वह तो बहुत उम्दा रचना है। अनेक पटलों पर रचना ने वाहवाही बटोरी है। इस बार समीक्षक ने मेरी रचना ठीक तरह से नहीं पढ़ी और रचना में दोष निकालकर गलत टिप्पणी कर दी है।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य यह बात है कि समीक्षा करते समय यदि समीक्षक महोदय केवल दोष ही न बताएं वरन् रचना में व्याप्त भाव एवं कला सौंदर्य एवं अन्य अच्छी बात को टिप्पणी में स्थान दें। लेखक को प्रोत्साहित भी करें अर्थात् आलोचना के स्थान पर समालोचना को महत्व दें तो इस दिशा में अवश्य सार्थक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।

वैसे मित्रों! सच में तो अपनी आलोचना को गलत ठहराना गलत तरीका है। माँ के पेट से तो कोई भी सीखकर नहीं आता। हम सब यहीं, इसी समाज में एक-दूसरे के साथ सहयोग से सब कुछ सीखते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। अतः अपनी किसी रचना की विवेचना मिलने पर हमें खुश होना चाहिए। क्योंकि आलोचना करने वाले समीक्षक महोदय ने हमारी रचना में सुधार करने हेतु अपना समय दिया है और अपने बुद्धि-विवेक का उपयोग करते हुए रचना के गुण-दोष व्यक्त करके हमें सुधार करने का अवसर दिया है। अतः हमें तो उनका शुक्रगुजार होना चाहिए।‌ यदि माना जाए तो एक तरह से समीक्षक महोदय हमारे गुरु समान हैं, क्योंकि साहित्य के क्षेत्र में श्रेष्ठ लेखनी के धनी होने के कारण उन्होंने हमारा मार्गदर्शन किया है। उनका ज्ञान इस विधा पर हमसे कहीं अधिक है तभी तो उन्होंने हमारा मार्गदर्शन किया है।‌ अतः लेखनी में सुधार हेतु हमें समीक्षक महोदय की टिप्पणी स्वीकार करना और रचना को सुधार करके दोबारा पटल पर रखना चाहिए। “यदि हम साहित्य के क्षेत्र में उन्नति करना चाहते और अपने ज्ञान तक सीमित कूपमण्डूक नहीं बने रहना चाहते तो हमें अपने भाव लेखनी द्वारा व्यक्त करके सबके सामने उजागर करते समय, रचना की आलोचना अथवा विवेचना को भी सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
बाबा कबीरदास जी भी यही कहते हैं —
निंदक नियरे राखिए,आँगन कुटी छवाय।
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करें सुभाय।।

सीमा गर्ग ‘मंजरी’
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश।

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