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प्राचीन आत्मा ह्रदय भाव

प्राचीन आत्मा ह्रदय भाव

वह दौर अब न आयेगा जब दूर-दूर में कोई गाँव नहीं होता था|गाँव में पाँच-सात घर सबमें बड़ा प्रेम होता था|चारो तरफ पेड़-पौधे हरियाली ही हरियाली होती थी|सब संध्या बेला में गाय चराने जाते,कोई पगड़ी बाँधे गमछा लपेटे तो कोई नंगी बदन केवल यज्ञोपवीत धोती पहने रहता और हाथ में थोड़ा पुतकी बाँधे,जिसमें चना,गुड़ होता था|लोटा डोरी साथ में लिए रहते थे|देर शाम तक गायो को चराते और सब साथ बैठकर चना, गुड़ खाकर बाग में कुऐ से ठण्डा जल पीते थे|तब यह प्रकृति बहुत देती थी|पक्की सड़कों का नाम निशान नहीं रहा करता था|बड़ा शान्त और आनंदमय जीवन रहा करता था|
गाड़ी प्रेट्रोल जब नहीं हुआ करते बैलगाड़ी से यात्रा नहीं तो पैदल यात्रा करते थे|बहुत ठण्डा प्रकृति वातावरण मनोरम ,चिड़ियाँ भोर से शाम तक कलरव करते रहते,कोई भेदभाव नहीं ईष्र्या-द्वेष का नाम कोई नहीं जानता था|बड़े प्रेम से बाबा-आाजी, भाई-बहनो का सम्मान क्या कहना?शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता|कभी ऐसा भी दौर था, जैसे पूरी धरती अपनी माँ अपनी है|
दूसरे गाँव में जाने पर लगता ये सब अपने है,चार-चार दिनों वही रूका जाता,आते समय लोगो को बड़ा दुख होता अपने पराये से सब परे हुआ करते थे|ईश्वर का सुबह शाम दीपक पुष्प समर्पण बहुत भाव के साथ होता था|तुलसी माता को भोजन में डालकर भगवान का भोग लगाते व प्रसाद रूप में सभी ग्रहण करते थे|
मनोरम प्रकृति की शोभा होती जैसे प्रकृति आवरण था,वैसे बहुत सच्चे प्रेमी मानव,मुझे लगता है,जैसे वहाँ मैं भी हुआ करता था|हमेशा ये दृश्य मन-मस्तिष्क-आँखों में छवि रहती है|
नंगे पैर या लकड़ी का खगाँऊ होता था|बहुत शुध्द ठण्डा वातावरण सुबह से कब शाम हुआ पता नहीं चलता था|धन्य हो ऐसा भी युग सदी रही|

पं० लवकेश तिवारी कुशभवनपुरी

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