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ये ग्रीष्म अवकाश का होमवर्क बच्चों का छिनता बचपन

ये ग्रीष्म अवकाश का होमवर्क बच्चों का छिनता बचपन

शिक्षा पहले सेवा क्षेत्र था । शिक्षा के क्षेत्र में जुड़ने वाले , समाज सेवा ,देश सेवा के भाव से जुड़ते । पैसा कमाना उद्देश्य नहीं होता था । धीरे धीरे समय के साथ शिक्षा क्षेत्र का मायने बदल गया । अब शिक्षा व्यापार हो गया , धन कमाने का जरिया बन गया । मेरा स्कूल ,मेरी संस्था सबसे श्रेष्ठ ,इस होड़ में — बच्चे का बचपन छिन गया ।
30 अप्रेल की जगह 30 मार्च को परीक्षा परिणाम आने लगा । 1अप्रेल को अप्रेल फूल की मस्ती की जगह अगली कक्षा ने ले लिया । 1अप्रेल से 30 अप्रेल और कहीं कहीं तो 10 मई तक अगली कक्षा की पढ़ाई । फिर भारी भरकम होमवर्क ,प्रोजेक्ट वर्क ।
जो इंस्टीट्यूट जितना ज्यादा होमवर्क दे वो उतना ही बड़ा ।उसकी उतनी ही ज्यादा फीस । माता-पिता को भी उस पर उतना ही गर्व । माता पिता बड़े फक्र से सर ऊंचा कर बताते हैं कि मेरा बच्चे फलाने स्कूल में पढ़ता है , ये ये होमवर्क मिला है । जिसके बच्चे के स्कूल में होमवर्क न मिला हो या कम मिला हो ,वो माता पिता बहुत मायूस ,बहुत दुःखी । हीन भावना से ग्रसित । सोचते होमवर्क नही मिला है ,बच्चा बड़ा सताता है उधम मचाता है । आने वाले साल में इस स्कूल से निकालकर फलाने स्कूल में डालना है ।
मिस्टर , मिसेज़ —- बोल रहा था/बोल रही थी ।उसका बच्चा फलाने स्कूल में पढ़ता है ।इतना होमवर्क मिला है ,बहुत बड़ा !!!!!! स्कूल है । वही हम भी अपने बच्चे को डालेगें ।
ये अलग बात है कि होमवर्क बच्चा नहीं करता बच्चे के माता -पिता करते है । होमवर्क के चक्कर में माता-पिता का पसीना छूट जाता । जेब ढीली हो जाती । बहुत से सँजोये अरमानों का जनाज़ा निकल जाता है । नाते रिश्तेदार छूट जाते हैं । सुंदर रीति-रिवाज़ परम्पराएँ कहने बस को रह जाती है । ऑफिस में भी बच्चे का होमवर्क घुस जाता है । बॉस की डांट पड़ती है , काम का स्तर गिर जाता है । पर कमबख्त होमवर्क पूरा नहीं होता ।
ये ग्रीष्म अवकाश का होमवर्क बच्चे का बचपन छीन लेता है । उसकी अल्हड़ मस्ती होमवर्क के बोझ में दब जाता है । दादा-दादी ,नाना-नानी ,चाचा-चाची , बुआ-फूफा जी कितने रिश्तेदारों का प्यार मनुहार छूट जाता है । इनके घर जाना तो दूर ये घर आये तो बोझ लगने लगते है । ये कब जाए माता -पिता सोचने लगते हैं । स्वयं करके ,देखकर ,सुनकर सीखने की क्षमता खत्म हो जाती है ।खूबसूरत बचपन मशीन बन जाता है । यही मशीन आगे चलकर पटरी से उतर जाता है ।

पहले ग्रीष्मावकाश में कोई होमवर्क नहीं होता था , न शासकीय विद्यालय में न निजी विद्यालय में और न ही इसे व्यतीत करने हेतु शिक्षक या स्कूल का कोई सुझाव होता । छुट्टी याने पूरी छुट्टी । स्कूल सम्बन्धी कोई तनाव न बच्चों को , न माता पिता को होती । ग्रीष्मावकाश कैसे बिताए ? ये माता-पिता और बच्चे स्वयं अपने घरेलूपरिस्थितियों के अनुसार तय करते थे ।
कोई नाना-नानी के घर तो कोई चाचा -चाची या ताऊ या किसी रिश्तेदार के जाते , शादी-ब्याह ,तीज-त्यौहार ,पूजा-पाठ में शरीक होते ।
पास -पड़ोस में उठते -बैठते , अपने मोहल्ले क्या , आस-पास के मोहल्ले वाले को भी जानते । किसी का नाम लेने की देरी होती ,झट से पता बता देते । किसके घर कौन मेहमान आया कब आये ,ये सारी खबर बच्चों को होती । बच्चे मज़ा लेने के लिए सबका रंग -बिरंगा नाम रखते , बोलते समय इन्हीं कोड वर्ड का उपयोग करते और खूब हँसते । हमउम्र या अपने से बड़े छोटे बच्चों के संग खूब खेलते ।

बड़े बुजुर्गों से किस्से कहानी सुनते । गाँव जाते । ग्राम्य जीवन से परिचित होते । प्रकृति को स्वयं अपने प्रयास से समझते । पास के नदी तालाब में नहाते । तैरना सीखते । जलीय जीव -जंतु से स्वतः परिचित होते । बाग बगीचे जाते । पेडों पर चढ़ते , फल फूल तोड़ते उनके स्वाद से परिचित होते । पेड़ पौधों को पहचानना सीखते । विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी ,कीड़े-पतंगों से परिचित होते ,कोई उन्हें छेड़ता तो कोई छेड़ने से रोकता । उनके रूप ,रंग ,गुणों से अवगत होते । शुद्ध हवा लेते । हवा का रुख पहचानते । याने समझ के साथ -साथ प्रकृति के प्रति स्वतः प्रेम पैदा होता ।

सुबह हो या शाम या भरी दोपहरी मस्तानी जिंदगानी होती थी । कोई रोक -टोक नहीं । रोक -टोक हो तो भी परवाह नहीं । चुपचाप दबे पांव बड़े बुजुर्गों की आँखों में धूल झोंककर अपनी टोली के साथ निकल जाना और विविध खोज में लग जाना , कई कई दूर तक पैदल चलना ,अपने खेल के समान स्वयं जुटाना बिना कोई पैसे के । नए नए खेल खेलना, घर केअंदर भी घर के बाहर भी खेल । मौसम को समझने का अवसर मिलता , मौसम से लड़ने की क्षमता पैदा होती ।
बच्चे घरेलू कामों में भी जमकर हाथ बटाते । माँ , ताई ,चाची , बुआ , दीदी बरसात की जमकर तैयारी करते ।चटनी ,आचार ,मुरब्बा बनाते , बड़ी ,बिजौरी , करौरी ,पापड़ जैसे किसम-किसम के सूखे व्यंजन साल भर के लिये बनाते ।इनको बनाने में बच्चे हाथ बटाते साथ ही देख-देख कर स्वतः बनाना भी सीख जाते ।

पहले टी वी , नेट ,मोबाईल जैसे इलेक्ट्रॉनिक सुविधाएं नहीं थी । अतएव निकट के वाचनालय में खूब गहमा-गहमी रहती ।बच्चे बड़े बुजुर्गों से वाचनालय सुबह से लेकर शाम तक गुलज़ार रहता था । चंपक ,नन्दन , चन्दा-मामा और कॉमिक्स के भी बड़े जलवे होते थे । इनको पढ़ने की होड़ लगी होती और इन पर चर्चा भी खूब होता । जो पहले पढ़ लिया वह सिकंदर ।

इनके लिए कुछ वाचनालय का चक्कर लगाते तो कुछ के घरों में आता , तो कुछ किराये पर लाते और बड़े फक्र से बताते और इतराते ।पुस्तकों की अदला बदली भी खूब होती । कुछ बड़े बच्चे और कुछ बुजुर्ग सबकी नजरों से बचकर बड़े मैग्जीन में छिपाकर उपन्यास पढ़ा करते थे । कितना भी छिपाते फिर भी जब कभी पकड़े जाते तो बच्चों को मनाते ,किसी को न बताने की हिदायत देते , चना -मुर्रा , चना-चरपटी , गुड़ पापड़ी , पिपरमेंट , गंगा इमली , आम ,लाटा , उसने केवट -कांदा खिलाने की लालच भी देते । बच्चे ऐसे मामलों में जबरदस्त ब्लैक मेल भी करते । जब तब बताने की धमकी भी देते ।
शाम होते ही डांस ड्रामा भी खूब करते ।बच्चे रामायण महाभारत , कॉमिक्स के मोटू पतलू , जोकर ,स्पाइडरमैन , चाचा चौधरी , विक्रम-वेताल ,अकबर बीरबल आदि के विभिन्न पात्रों की भूमिका निभाते । सबकी नकल करते ,डायलॉग बोलते । खुद ही किरदार होते और खुद ही दर्शक होते । ताली भी खूब बजाते ।
कभी कभी झगड़ा भी होता तो मान -मनौव्वल का दौर चलता ।

गर्मी की छुट्टी याने बिना तनाव के सीखने-सिखाने के अवसर ही अवसर । बिना होमवर्क के भी बच्चे ,बूढ़े और जवान बहुत कुछ सीख जाते । एक नयी ताज़गी होती ,नया अंदाज़ होता , स्कूल खुलने पर नया उत्साह होता ।
#आइए_
#हम_सब_मिलकर_एक_अभियान_चलाएं ,
#होमवर्क_के_बोझ_से_बचपन_बचाएं ।
#सरकारी_विद्यालय_में_बच्चे_को_पढ़ाएं ।

वर्षा ठाकुर ,
प्राचार्य ,
शा. उ.मा. विद्यालय
जुनवानी – भिलाई ।

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