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गजल गीतिका

गजल गीतिका

खेल जीवन का निराला।
पी रहा हूँ विष का प्याला।

सब गिराना चाहते थे।
मैंने खुद को था सम्हाला।

हमसे नफ़रत जो थे करते।
दिल से उनको अब निकाला।

काँटे जो चुभने लगे थे।
उनको भी राहों से टाला।

लोग जो नफ़रत से बाँटे।
खा रहा हूँ वो निवाला।

रास्ते में सबने मेरे।
खोदना चाहा है नाला।

आगे बढ़ना चाहते सब।
छेद कर सीने पे भाला।

हर जरूरत के हिसाबों।
से ही मैंने खुद को ढाला।

लोग कहते जा रहे थे।
मैंने मुख पर रख्खा ताला।

सबके ही झोली में मैंने।
खुशी और ‘आनन्द’ डाला।

आनन्द पाण्डेय
घोरावल सोनभद्र

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