ग़ज़ल
ग़ज़ल
हमनशीं हमनवा दिलदार हुआ करते थे
इश्क़ के वो भी तलबगार हुआ करते थे
लूट लेते थे वो पल भर में ही सारी महफ़िल
शेर ग़ज़लों के असरदार हुआ करते थे
चंद सिक्को में ये अख़बार भी बिक जाते अब
जो कभी सच के तरफ़दार हुआ करते थे
सबको हासिल थी ज़माने की ही दौलत लेकिन
हम तो बस अश्कों के हक़दार हुआ करते थे
फ़स्ल नफ़रत की ही बोने की थी फ़ितरत उनकी
जो यहाँ कौम के गद्दार हुआ करते थे
छोड़ तूफ़ा में हमें कर के किनारा निकले
मेरी कश्ती के जो पतवार हुआ करते थे
आज लिखते हैं वहीं मुल्क की क़िस्मत देखो
जो कभी ज़ुल्मों के सरदार हुआ करते थे
नींव हिलने लगी उस घर की भी अब तो मीना
जिसके पत्थर बड़े दमदार हुआ करते थे
मीना भट्ट ‘ सिद्धार्थ ‘