परिवार, क्या बचा है कही,
परिवार, क्या बचा है कही,
जो था व्यवहार वो टिका है क्या कही,।।
हाँ तब तलक तो हाँ ,
जब तक लड़के ब्याह नही दिए है जाते,
पर क्या हो जाता है उस लड़के की शादी के बाद बहु के घर आते।।
क्यूंकर उसमे गंध है आने लगती,
अधिकारों की सुंगध किसको है गलाने लगती।।
पटाक्षेप हो जाता है, कुछ स्मृतियों का ऐसे,जैसे बुला दी गई हो परंपराएं,
तमाम उन विस्मृतियों का।।
वो माँ जो घर ऑगन बुहारती थी,
प्यार से हमे मुन्ना पुचकारती थी,
अब भारी लगने लगी हैं,
उसकी हर सलाह, हिदायत,
कलह का रूप बनने लगी है,।।
यह टकराव,
परिवार मे तो नही था दिखता,
फिर कैसे हो गया,
जबसे आई घर मे इक नई शिक्षा।।
इधर जो पिता के कंधे दुनियाँ दिखाते थे,
ले कर इधर-उधर की हर छोटी बड़ी बात विस्तार से समझाते थे,
अब कही ख़ामोशी उनके लब सिलने लगी है,जबसे उनकी हैसियत की नई परवरिश, उनकी हदें चुनने लगी है।।
भाई बहन सब बिफरने से लगे है,
माला के मोती बिखरनें से लगे है।।
हैरानी होने लगी हैं,
परिवार की गरिमा
सब को खलने लगी है।।
चिंता इस बात की नही कि परिवार टूट रहा है,
चिंता तो इस बात की है,कि संबंध टूट रहा है।।
दोष समाज का तो नही है,
पर होश भी तो कोई किसी को नही है।।
इक बीज को जब पनपना था तो उसे हर चीज ने सहेजा,
सूरज बन पिता ने मिट्टी बन माँ ने, अपने प्राणों से उसे सींचा।।
और भाई बहन बन हवा और पानी उसे वृक्ष बनाने लगे ,
फिर कब उसके ब्याह के सपने सजाने लगे,
और वो ख़्वाब की वृक्ष बांगबा हो जाएगा,
कैसे सुनहरे ख़्वाब दिखाए जाने लगे।।
सब जादू सा होता गया,
और इधर हुआ ब्याह,
और परिवार खोता गया।।
कुछ पुरानी परम्पराएं नकार दी जाने लगी,
आधुनिकतम की शिकायत परिवार खाने लगी।।
हर बार इक कमी हर कही दिखाई जाने लगी,
और परिवार की गरिमा स्व परिवार से मुँह चिढ़ाने लगी।।
वर्ण संकर सी स्थिति आ गई ,
जाने कौन परिवार की गरिमा खा गई।।
आधुनिक शिक्षा,पाश्चात्य संस्कृति या फूहड़ता की होड़, दोष किसे भी दे,क्या
फर्क पड़ता है,
परिवार अब कुछ भी कहे परिवार न लगता है।।
सिमट गए है कुछ लोग परिवार के धाम धर पति पत्नी और बच्चा परिवार के नाम पर।।
अब शिकायत नही है क्योंकि स्वतन्त्रता हावी है,
दिन दूर नही जब एक सदस्यीय परिवार की बारी है।।
इक सवाल मन मे कौंधता है,
वो कौन है जो ऐसे बीज रौंपता है,
जिसकी कलियाँ खेत है उजाड़ती ,
परिवारों की गरिमा है उखाड़ती।।
और ऐसा हर कही नही है,
हैं कुछ माँएं जिन्होंने, पन्ना धाय,और सावित्री भी जनी है,
जनी है उन्होंने ,झाँसी रानी व उदाहरण कन्याएं ,
पर जो बचाए वह संस्कृति ऐसी संस्कृति कहा से लाए, ।।
दोनो हाथो से लुटाए बैठे है,
परिवार, अजी इसी की टूटन की आवाज कोर्ट कचहरी दबाए बैठे है।।
शादी जो परिवार बनाती थी,
अब सरेआम लगा बोली व्यापार बढ़ाती है,
गरिमा अरे छोड़िए वो पैसों से स्व चली आती है।।
संदीप शर्मा ‘सरल’