गरीबी की आग में जलते बेचारे ‘देवना’ की ज़िंदगी
गरीबी की आग में जलते बेचारे ‘देवना’ की ज़िंदगी
यह कहानी बिल्कुल ही वास्तविक है। लेखक ने अपने ही गाँव के सीधे-साधे व भोले-भाले ‘देवनारायण मंडल’ जी, जिन्हें गाँवभर के लोग, चाहे बच्चे हों या बूढ़े, सभी उन्हें प्यार से ‘देवना’ कहकर बुलाते हैं। क्योंकि ‘देवनारायण मंडल’ जी एक गरीब आदमी हैं।
आज ‘देवनारायण मंडल’ जी गरीबी व भुखमरी की राहों में एक स्तंभ बनके खड़े हैं। उन्हें देखनेवाला और उनकी मदद करनेवाला कोई नहीं है। ‘देवनारायण मंडल’ जी ने अपनी दुखद ज़िंदगी से कभी हार नहीं मानी। वे किसी के खेत में मज़दूरी करके किसी तरह से अपनी ज़िंदगी गुज़ार ही लेते हैं। एक दिन मैंने देखा कि उनके हाथ में एक झोला था, मैंने झोले को देखते ही उनसे पूछा… भाई ये झोला लेकर आप कहांँ जा रहे हैं।
तो वे हँसते हुए बोले….मैं ‘मिलकी बाध’ जा रहा हूँ ! धान को लोढने (धान चुनने)। और यह सुनकर मुझे अजीब सा फील हो रहा था। उनकी कही हुई बातों ने मेरे दिल को काफी झकझोर दिया था। फिर मैंने भावुक होकर उससे कहा…एक दिन में धान, कितने किलो तक लोढकर (चुनकर) ले आते हैं आप।
उन्होंने अपनी चादर ओढ़ते हुए बोला… लगभग दस किलो तक धान तो ले ही आता हूँ मैं। कल लाया था धान तो राजन की माँ उसे हांडी में फुलने रख दिया है उसनने (उबालने) के लिए। अभी तो मैं जा रहा हूंँ लोढने, क्योंकि इस धान का चुडा कुटाया जाएगा।
उसकी बातें सुनकर मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए। अब सोचिए ! आजकल के युग में कौन जाता है लोढ़ा-बिछाकर खेतों में धान चुनने, अब ज़माना बदल गया है इसके साथ ही हमारी सोच भी बदल गई है। चाल-चलन से लेकर रहन-सहन तक में बदलाव आ गया है। पर ‘देवनारायण मंडल जी’ यानी ‘देवना’ की ज़िंदगी अब भी बदल नहीं पाई है। आज उनकी ज़िंदगी में गरीबी इस तरह से कहर ढा रही है कि मानो ज़िंदगी! ज़िंदगी नहीं बल्कि मौत के समान हो गई हो।
अक्सर गाँव में जब भी कोई शादी-ब्याह का कार्यक्रम होता है तो सबसे पहले ‘देवनारायण मंडल जी’ को ही बुलाया जाता है, घर-आंँगन की साफ़-सफ़ाई करवाने के लिए। उन्होंने कभी भी किसी को मना ही नहीं किया है। शादी-ब्याह वाले घर में एकदम फिरकी की तरह खटते हुए नज़र आते हैं वे। उस घर के लोग जो भी रुपए-पैसे उन्हें देते तो वे उसे हँसकर कबूल कर लिया करते हैं।
‘देवनारायण मंडल’ जी ने कभी किसी से कोई डिमांड नहीं करते थे, कि मुझे इतने पैसे लेने हैं, पैसे मिलेंगे तभी मैं कोई काम करूँगा, उनमें ऐसी बातें नहीं होती थीं। कहा जाता है कि सादे दिलवाले लोग सिर्फ़ अपनी ईमानदारी से ही जीते हैं, फिर भी लोग न जाने क्यों उन्हें ठगी का शिकार बना लिया करते हैं।
‘देवनारायण मंडल’ जी की पत्नी गूँगी तथा कान से बहरी है। लोग उसे बोकिया कहकर अपमानित करने से चूकते नहीं है। बेचारी ‘देवना’ की पत्नी भी किसी के घर जाकर चूल्हा-चौकी करके अपने घर का राशन ले आती है। इसी तरह से उनकी दिनचर्या चलती है।
गाँव-भर में बहुत तरह के कुछ ऐसे भी लोग रहते हैं जिनका लोगों की हमेशा बुराई व चुगली करने में ही समय बीत जाता है, मगर ‘देवनारायण मंडल जी’ में ये सारी बातें आज तक मैंने नहीं देखी हैं।
एक दिन मैंने उन्हें देखा कि ‘जीनपीर बाबा’ के थान पर वह अचेत लेटे हुए थे। उनके करीब आकर मैंने उन्हें टोका….की समाचार हौ भाय! वह उठकर बैठे, और धीमे स्वर में बोले.. ठीक छै हौ।
मैंने उनसे कहा… तबियत तो ठीक है ना। उन्होंने मेरी ओर देखा और कुछ बड़बड़ाने लगे।
फिर मैंने उनसे पूछा और कहा…क्या हुआ भाई तम्हारे चेहरे पर ये उदासी क्यों?
उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा… उदासी कहाँ छै! दु दिन से बैठारीए रहै छी, कोनो कामौ नै मिलै छै। यह कहकर वे रोने लगे।
मैंने उन्हें समझाते हुए कहा… रोते क्यों हैं रोने से समस्या घट जाएगी, नहीं ! बल्कि और बढ़ जाएगी।
तभी उन्होंने अपने आँसू पोंछते हुए मुझसे कहा कि….घर में खाने को एक भी दाना नहीं है, कल बड़े दरबार में कुछ काम मिला था तो दो दिन तक उसी से गुज़ारा हुआ था।
घर जाता हूंँ तो ‘राजन की माँ’ कहती है कुछ लाए भी हो क्या आप? वो बौकी (गूँगी) है। फिर भी मैं उनकी भावनाओं को भांँप लेता हूंँ।
मैंने ‘राजन की माँ’ से कहा….अगर कोटा (जन-वितरण प्रणाली की दुकान) में राशन आ जाता, तो दिक्कत ही नहीं होती,
मैंने सुना है इस माह का राशन दान में लिया जा रहा है विष्णु यज्ञ के लिए। कैसे जिऊँ ! मेरे तो अभी से रौंगटे खड़े हो रहे हैं।
तभी मैंने उनसे कहा….चिंता क्यों करते हैं? आप तो अपने हिस्से का राशन भूखे रहकर ‘विष्णु यज्ञ’ में दान दे रहे हैं भला ‘विष्णु भगवान’ आपको भूखे कैसे रख सकते हैं? फिर मैंने उनसे कहा चलिए मैं आपकी मदद करता हूँ, आप यही सोचिएगा की ! ये ‘विष्णु भगवान’ की तरफ से ही आपको तौफा मिला है।
तभी मैंने उन्हें अपने घर लाकर पंद्रह किलो चावल एवं सौ रुपए के नोट भेंट स्वरूप में उन्हें दे दिए।
वह हँसते व बड़बड़ाते हुए अपने घर चले गए। घर पहुंँचते ही उनकी गूँगी पत्नी झोले को झपटकर पकड़ ली और अपनी भाषा में ही अपने पति से कहने लगी ये किसने दिया है आपको। उसने सारी बातें अपनी पत्नी को बता दीं।
दो दिन बीत जाने के बाद, संध्याकाल में टहलते हुए मैं उनके घर की तरफ मुड़ा, तभी मैंने देखा कि उनके घर की हालत इस तरह से थी, कि घर पर छप्पर कम प्लास्टिक की पल्ली वाला पाल लगा था, जो कि पूरी तरह से जर्जर नज़र आ रहा था। घर में साड़ी की दीवार बनाई गई थी। अगर कोई उसके घर को एक नज़र देख ले तो ज़ुबांँ से अनायास आह! ज़रूर निकलेगी।
जब मैंने उनके दरवाज़े पर खड़े होकर उन्हें आवाज़ लगाई ‘देवनारायण’ भाई ओ ‘देवनारायण’ भाई! तो उनकी तरफ़ से मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। तब मैंने उनके आंँगन में जाकर देखा तो ‘देवनारायण मंडल’ जी टूटे हुए घर की मिट्टी के बरामदे पर ही गहरी नींद में सो रहे थे। मैंने उन्हें जगाते हुए कहा…भाई सो रहे हैं क्या?
वे छटपटाकर उठे और कहीं से एक खाली बोरी लाकर मुझे बैठने के लिए दिए तो मैंने कहा… ठीक है! ठीक है रहने दीजिए।
उन्होंने अपने घर की तरफ देखते हुए कहा…कि बैठव्हौ तें इ गरीब के घर! हमर घर के हालत देखौ, कोनो मुखिया हमरा देखवे नै करै छै, ऐन्हैं रहै छी।
मैंने हिम्मत का पुल दिखाते हुए कहा… जिसका कोई नहीं उसका स्वयं भगवान होता है।अभी आप ज़रूर ‘गरीबी की आग’ में जल रहे हैं लेकिन आप हमेशा नहीं जलेंगे इस आग में। आप हिम्मत रखिए और सब कुछ ऊपर-वाले पर छोड़ दीजिए, यह कहकर मैं अपने घर चला आया।
‘देवनारायण मंडल जी’ गरीबी की जिस आग में नित जलते हुए नज़र आते हैं आज मैं अपनी ज़ुबांँ से बयांँ भी नहीं कर पा रहा हूंँ, फिर भी ‘देवनारायण मंडल जी’ यानी ‘देवना’ के बगैर बड़े-छोटों का कोई काम ही नहीं होता। अगर ‘देवनारायण मंडल जी’ शिक्षित व थोड़े बहुत धनवान होते तो शायद उनको लोग ‘देवना’ कहकर संबोधित नहीं करते और यही ‘देवना’ ! अच्छा खासा मेहताना भी लेते।
पर अफसोस ! ‘देवनारायण मंडल जी’ के मुँह में बोली तो है, पर कुछ अमीर शहज़ादों को उनकी आवाज़ सुनाई ही नहीं देती है और न ही उनकी गरीबी दिखाई देती है।
आज उनकी हालत को देखते हुए मैंने सोचा कि इस पर कुछ लिखना चाहिए ताकि लोग इसे पढ़कर किसी गरीब का मज़ाक़ न उड़ाएँ और जहांँ तक हो सके इस तरह से गरीबी में जी रहे लोगों की मदद करें।
संदीप कुमार विश्वास
रेणु गाँव,औराही-हिंगना
फारबिसगंज, अररिया-बिहार