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लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर तथा गांधी जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन गांधी जयंती पर

——लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर—–
तथा गांधी जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन।
—————-गांधी जयंती पर————–
—–उनके के प्रति भ्रांतियां बदलनी चाहिए—-
(भारत पाक विभाजन कोई टाल नहीं सकता था)
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— हेमचंद्र सकलानी, देहरादून
गांधी जी ने जिस भारत का सपना देखा था क्या वास्तव में वह आज पूरी तरह खो गया है। इसके प्रत्युत्तर में यह प्रश्न अवश्य उठता है कि कितने लोगों ने गांधी की कथा व्यथा को पड़ा है, समझा है, उस पर चिंतन मनन मंथन किया है। जिस महान पुरुष को, उसके कार्यों को सारा विश्व आश्चर्यचकित होकर देखता सुनता रहा हो उसके नाम को किस किस तरह उस देश के नेताओं ने उनके अनुयायियों ने भुनाया है यह कहने लिखने की बात नहीं है। सारा विश्वास पूछता है कि क्या गांधी के दर्शन का,सिद्धांतों का,आदर्शों का जनाजा इस देश से उठ गया है। क्या यह वही देश है जिसके करोड़ों करोड़ों लोगों के दिलों पर कभी गांधी उसके सिद्धांतों और दर्शन ने राज किया था। यह सत्य है कि किसी महापुरुष का सारा जीवन चिंतन सर्वकालिक उपयोग का नहीं होता है। सिद्धांतों,आदर्शों,दर्शन का निर्माण परिस्थितियों के दबाव में होता है। बदलते परिवेश के साथ ही परिस्थितियों के दबाब में उनमें में परिवर्तन होता है। परंतु यह भी कटु सत्य है कि अक्सर व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक स्वार्थों के दबाव में दर्शन,सिद्धांतों, आदर्शों की धज्जियां तक उड़ जाती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में सामाजिक राजनीतिक विसंगतियां, विरोधाभास थे मगर छोटे-छोटे पौधों के रूप में थे,सत्ता लिप्सा उन्हेंने आज विशाल वटवृक्ष का रूप दे दिया है।
अफ्रीका में जब गांधी जी जब वकालत कर रहे थे तब वे सुटेड बुटेड गांधी थे,पर जब स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए भारत की भूमि पर उतरे थे तब एक संत की तरह पुरानी गुजराती वेशभूषा में उतरे थे। संत की तरह आए तो फकीर की तरह चले भी गए थे। दुखी होकर शायद ही कोई स्वीकार करे कि इस देश में गांधी का कोई राजनीतिक स्वार्थ रहा होगा। किसी समय विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या का समर्थन और राजनीतिक शक्ति हासिल करने वाला व्यक्ति चाहता तो क्या नहीं कर सकता था, क्या नहीं पा सकता था, दुनिया का कौन सा सुख चैन, ए ऐशो आराम था जो उन्हें नहीं मिल सकता था। स्वतंत्रता के बाद जिस तरह लोगों ने नेताओं ने आंदोलन में भाग लेने का मुआवजा देश से वसूला है कौन नहीं जानता। पर अफ्रीका से आने के बाद एक चश्मा है, एक लाठी, एक खड़ाऊ,एक घड़ी, एक धोती मात्र अंतिम समय तक उनके साथ रहे थे। विश्व नेताओं के इतिहास में गांधीजी जैसा कोई दूसरा उदाहरण हमें देखने को शायद कभी मिल नहीं पाएगा। शायद इसीलिए महान वैज्ञानिक आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि “आने वाली पीढ़ी कभी विश्वास नहीं करेगी कि हाड़ मास के एक ऐसे पुरुष ने भी इस धरती धरती पर जन्म लिया होगा।”
गांधी जी पर बहुत से आरोप लगाए गए जिसमें भारत के विभाजन का अनेक लोग उन्हें दोषी मानते हैं। यह आरोप सिर्फ मूर्ख लोग ही लगा सकते हैं। गांधी कभी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने विभाजन का प्रस्ताव पास होने से पूर्व कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में कहा था कि विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार न किया जाए। वह स्वयं उस कमेटी से दूर रहे जो विभाजन के प्रश्न पर आयोजित थी। पर तत्कालीन परिस्थितियां ऐसी हो गई थीं कि गांधी क्या विश्व को कोई भी व्यक्ति,कोई भी सेना,कोई भी ताकत विभाजन कि उस त्रासदी को टाल नही सकती थी। नोआखोली के दंगों में उन पर आरोप लगा कि उन्होंने मुसलमानों को बचाने के लिए आमरण अनशन किया पर यह कटु सत्य था कि यदि वे आमरण अनशन न करते तो हजारों हिंदू मर जाते है और खूंखार सोहराबवर्दी आत्म समर्पण कदापि न करता। देखा जाए तो तब एक जिंन्ना हुआ था आज इस देश में जिन्नाओं की कोई कमी नहीं है। 1920 में खिलाफत आंदोलन तथा असहयोग आंदोलन जब आपस में मिल गए उस समय इलाहाबाद की एक मुस्लिम सभा में गांधी जी ने कहा था “यह लड़ाई एक शक्तिशाली शत्रु से एक बड़ी लड़ाई है इसमें हम सभी को कुछ खोने और अहिंसा अनुशासन का पालन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। यदि हम जीतना चाहते हैं तो इस अहिंसात्मक लड़ाई में हमें तानाशाही और फौजी कानून का प्रयोग करना होगा। आप चाहे मुझे ठोकर मार कर निकाल दें, मेरा सिर मांग लें,जैसा चाहे वैसा मुझे दंड दे। परंतु यह तानाशाही आपकी सद्भावना, आप की स्वीकृति और आपके सहयोग पर निर्भर होगी। यदि आप मुझे नेता मानते हैं तो मेरी यह शर्तें आपको माननी होंगी, यह अधिकार आपको मुझे देना ही होगा। जब आप समझें आपको मेरी जरूरत नहीं है आप निकालकर मुझे फेंक दें, पैरों से कुचल दें, मैं शिकायत नहीं करूंगा।” इतने विनीत भाव से साफ कठोर शब्दों में कहने की क्षमता सिर्फ किसी महात्मा में ही हो सकती है। किसी राजनीति में माहिर व्यक्ति में नहीं। तब तत्कालीन नेताओं ने उनके सत्य,अहिंसा,असहयोग आंदोलन को देख कर कहा था इन्हें देख कर अंग्रेज तो क्या चूहे तक नहीं भागेंगे। दलितों के उत्थान का युग गांधी के समय से ही शुरू हुआ।सन 1928 मेंलक्ष्मीनारायण हिमणघाट, 1932 में, वर्धा के मंदिरों को उनके प्रयासों से हरिजनों के लिए खुलवाया गया था।हरिजनों को मंदिर में प्रवेश देने के लिए 1920 में उन्होंने ये धूलिया जेल में आमरण अनशन किया। 1933 में साबरमती आश्रम की जमीन उन्हीं के प्रयासों से हरिजन संघ को प्राप्त हुई थी। 1933 में हरिजनों के उत्थान अस्पृश्यता निवारण के लिए उन्होंने सारे देश का दौरा किया। कुष्ठ रोगियों जिन्हें देखना छूना भी लोग पसंद नहीं करते थे ऐसे रोगी की अपने हाथों से मालिश किया करते थे। कितने नेता कितने समाज सुधारक हैं आज जो मैला ढूंढने वालों के मोहल्ले में रहने का साहस कर सकते हैं परंतु गांधी जी ने कुछ दिन मात्र इसलिए उनके साथ बिताए थे कि उनकी समस्याओं को कठिनाइयों को समझ सकें और उन्हें राष्ट्र की समानता की मुख्यधारा में ला सकें।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सत्याग्रह, सविनय, आंदोलन,असहयोग आंदोलन, गोलमेज कांफ्रेंस, अहिंसा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, अनशन, आंदोलन, अस्पृश्यता आंदोलन, छुआछूत, भेदभाव विरोधी आंदोलन, डांडी मार्च, भारत छोड़ो आंदोलन कहां-कहां गांधी जी दिखाई नहीं पड़ते। कल्पना कीजिए स्वाधीनता आंदोलन के ऐतिहासिक पृष्ठों से, घटनाओं से, यदि गांधी जी को हम हटा दें तो फिर क्या लिखने पढ़ने सुनने को शेष रह जाता है क्या हर ओर शून्य नजर नहीं आएगा। यद्यपि अनेक देश भक्तों ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अपनी आहुति दी है जिनका योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं आंका जा सकता है,भुलाया नहीं जा सकता है। आज चैलेंज शोध का विषय लोगों के सामने आ सकता है, यह क्या ऐसे भारत की कल्पना गांधीजी ने की थी कि सड़कों पर सरकार के शासन प्रशासन के सारे कानूनों की धज्जियां गुंडे अपराधी उड़ाएंगे। जिन्हें गोली मार दी जानी चाहिए वो सम्मान पाएं। विभाजन देश का तत्कालीन परस्तिथियों के कारण जनता की सोच के कारण आवश्यक था अगर न होता तो फिर जो होता उसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता था।
गांधी ने अपना सारा जीवन सुख आराम देश पर न्योछावर किया, क्या गर्मी सर्दी बरसात में पैदल यात्रा कर अनेक कष्ट झेले पर कोई बताए उन्होंने उनके वारिसों ने इस देश से क्या लिया या इन्हें देश ने क्या दिया। वर्तमान पीढ़ी में गांधी और उनके विचारों के,सिद्धांतों के प्रति जो भ्रांतियां लोगों ने फैलाई हैं उन्हें दूर करने की आवश्यकता है। जिससे वर्तमान पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी उस संत के बारे में किसी भ्रम में न रहे। गांधी जी के साथ गांधी युग का अंत हो गया मगर महापुरुष जन्म लेते हैं मरते हैं पर उनके सिद्धांत आदर्श दर्शन कभी नहीं मरते। वे समय के साथ पनपी विरोधी शक्तियों के कारण समय के गर्भ में दफन कर दिए जाते हैं पर मनुष्य को, समाज को, समय को, परिस्थितियों को, जब उनकी आवश्यकता पड़ती है और जब उन्हें ऊर्जा मिलती है पुनः अंकुरित होते हैं। निसंदेह गांधी जैसा व्यक्तित्व न पैदा हुआ था और न पैदा होने की संभावना है।
मदुरै के म्यूजियम में है यह बंडी जो गांधी जी उस समय पहने थे जिसपर गोलियों से बने खून के धब्बे आज भी दिखाई पड़ते हैं। मेरे द्वारा लिया गया था यह चित्र।

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