हिंदी दिवस समर्थ भाषा है हिंदी
हिंदी दिवस
समर्थ भाषा है हिंदी
-गोवर्धन थपलियाल
हिंदी अनंत काल से हमारी भाषा रही है, लेकिन जिस खडी बोली को हम प्रचलन में लाये हैं वह डेढ..पौने दो सौ साल पुरानी है। हमे यह नही भूलना चाहिये कि हिंदी हमारी आत्मा की भाषा है और हमारा संसार का सबसे महत्वपूर्ण और अमूल्य आभूषण है।
यह आभूषण शब्दों, वाक्यों, और छंदों के माध्यम से न केवल भाषा को सौंदर्यपूर्ण बनाता है, बल्कि हमारी सोच और भावनाओं को भी समृद्ध करता है
हिंदी एक चमत्कारी भाषा है , इसमें भी गूढ गणितीय सूत्रों को उसी तरह व्यक्त करने की क्षमता है जैसा कि संस्कृत के वैदिक सूत्रों में है। आप मानें या न मानें पर
इसका महत्व कभी भी कमतर न होग।
कवि चंदवरदाई ने अपने एक छंद के माध्यम से शब्द बेदी वाण चलाने का पूरा गणितीय सूत्र ही बता दी थीं।
“चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान ”
यह तो हो गई कवि की बात पर हमारे धोती कुर्ता पहनने वालै बडे बुजुर्ग जो इतने अधिक पढे लिखे नही थे, सरल, बोधगम्य भाषा में पहेलिया बुझा कर गणित कै पाठ के साथ साथ संस्कारों का पाठ भी पढा लेते थे।
“चार मिले चौंसठ खिले, बीस रहे कर जोड़।
प्रेमी सज्जन दो मिले, खिल गए सात करोड़ ”
कितने गूढ ज्ञान की रहस्य की बात है…
चार मिले – जब भी कोई मिलता है, तो सबसे पहले आपस में दोनों की आंखें मिलती हैं, इसलिए कहा, चार मिले।
फिर कहा, चौसठ खिले –
यानि दोनों के बत्तीस-बत्तीस दांत – कुल मिलाकर चौंसठ हो गए, इस तरह “चार मिले, चौंसठ खिले” हुआ।” मुस्करा दिये।
“बीस रहे कर जोड़” – दोनों हाथों की दस उंगलियां – दोनों व्यक्तियों की 20 हुईं – बीसों मिलकर ही एक-दूसरे को प्रणाम की मुद्रा में हाथ बरबस उठ ही जाते हैं।”
“प्रेमी सज्जन दो मिले” – जब दो आत्मीय जन मिलें – यह बड़े रहस्य की बात है – क्योंकि मिलने वालों में आत्मीयता नहीं हुई तो “न बीस रहे कर जोड़” होगा और न “चौंसठ खिलेंगे”
उन्होंने आगे कहा, “वैसे तो शरीर में रोम की गिनती करना असम्भव है, लेकिन मोटा-मोटा साढ़े तीन करोड़ बताते हैं, बताने वाले ! तो कवि के अंतिम रहस्य – “प्रेमी सज्जन दो मिले – खिल गए सात करोड़।” का अर्थ हुआ कि जब कोई आत्मीय हमसे मिलता है, तो रोम-रोम खिलना स्वाभाविक ही है भाई – जैसे ही कोई ऐसा मिलता है, तो कवि ने अंतिम पंक्ति में पूरा रस निचोड़ दिया – “खिल गए सात करोड़” यानि हमारा रोम-रोम खिल जाता है।”
हमारी कहावतों में कितना सार छुपा हुआ है। एक-एक शब्द चासनी में डूबा हुआ, हृदय को भावविभोर करता रहा है ।
इन्हीं कहावतों से हमारे बुजुर्ग, हमारे अंदर गाहे-बगाहे संस्कार का बीज बोते रहते थे।
हिन्दी भाषा में ही वह सामर्थ्य है कि संसार की किसी भी बोली और भाषा को ज्यों-का-त्यों लिखित रूप दे सकती है। हमे हिंदी के प्रगामी प्रयोग हेतु देसी कहावतों, मुहावरों और लोकोक्तियों को अधिक से अधिक अपनाना चाहिए जिससे कि हिंदी की रसधारा को शाश्वत बनाये रखने के साथ भाषा का सौंदर्य के साथ इन्ही देसी मुहावरों ,कहावतों को जीवित रखा जा सके। इनसे अलंकृत करने पर ही हिंदी समृद्ध होगी न कि इसे केवल सरकारी अनुवाद की कृत्रिम भाषा बनाने से।