अँधेरे में
अँधेरे में
“माता जी! ओ माता जी!!”- नीचे से किसी ने पुकारा।
जाकर देखा तो एक स्त्री खड़ी थी। मैं उसे देखती
रही, कुछ टटोलती रही। लकड़ी टेके उस बुढ़िया
की स्मृति हो आई जो कभी दूध देने के लिए घर
आया करती थी। वैसी ही झुकी कमर, वही चिपके
गाल, उठी नाक, भोली छोटी सफेद-सी डूबी-इबी-सी सुस्त आँखें ,सब वही वही …
वह कुछ कह रही थी। स्वप्न का-सा दृश्य मेरे
अन्तर में घूम रहा था। विश्रान्त करुण अवस्था
और करुण गिरा का परिचय पाकर भी मैंने
लाचार हो प्रश्न किया और वह अपनी बात
दोहराने लगी।
वह मकान की तलाश में थी। कितने सदस्य हैं पूछते हुए मैंने कमरे का ताला खोला। स्त्री की आँखों से अश्रुधारा बह चली थी। आँचल को संभाल वह उसी से उन्हें पौंछ रही थी। किसी तरह बोली- “इसके अलावा…” सिसक कर मौन हो गई। वह देखती थी. कभी कोठरी को, कभी मुझे और कभी शून्य में। घर में अन्य कोई न था। चंद निःस्तब्ध पल यूँ ही रीत गए। मैंने उसे अगले दिन आकर बातचीत करने के लिए कहा।
वह चली गई और मैं देखती रही उसके कंकाल को, दुर्बल पीठ को, झुकी कमर को जो धीरे-धीरे ओझल हो गई। फिर भी शक्ल सामने आती, स्वर सुनाई
देते – माताजी !ओ माताजी !!
दूसरा दिन भी आ गया। वह फिर आई और कल की भांति मुझे ही उससे बात करनी पड़ी। और तो सब ठीक हो गया किन्तु उस छोटी कोठरी में उसके परिजनों का निर्वाह नहीं हो सकता था। भाल ठोक निराशा ,हताशा की वह मूर्ति राह चलने लगी।
तपती गच और पैरों में पदत्राण नहीं! गेरूई सफेद
आँखें !!
सहसा उसने पीछे मुड़कर देखा। उसे कोई भनक मिल चुकी थी। शायद कोई इशारा कर चुका था।
रुक्ष केश… बिखरे बाल… जरा फुर्ती से कदम बढ़ाती एक मकान में घुस गई। तभी तीव्र स्वर सुनाई दिया –
चली जा बाई तू क्या मकान में रहेगी! भाड़ा देगी तू? अरी तू वही है न जिसका सामान मालिक ने सड़क पर फेंक दिया था।
वह फूट फूट कर रोने लगी। आखिर मालकिन ने कहा- ” देख, तुझे मेरा सब काम करना पड़ेगा!
एक-एक काम!! किराया कम लूंगी पर काम पूरा !!” उसने मंजूर किया।
अब वह मजदूरी भी करती, किराया भी देती और मालकिन का अत्याचार भी सहती। आखिर कब तक?
एक दिन खण्डहर बने मंदिर में शरण ली। वहां न कोई पुजारी था न कोई मूर्ति। जब कभी मैं उस ओर से गुजरती थीं तब मन में भावों की बाढ़ -सी आ जाती और वह मुझे देख लेती तो नजरों में हल्की मुस्कान तैर आती।
उसके परिजन अखबार की थैलियाँ बनाते और वह उन्हें बेच आती थी। पुराने अखबार ले आती थी। मजदूरी भी करती थी। माँ भी मदद को उन्हें कुछ दे आती थीं। समय बीतता गया।
* * * *
एक दिन सुनी मैंने उसकी कहानी। वह एक समृद्ध परिवार की लड़की थी पर निरा अशिक्षिता । बाल्यावस्था में ही उसका विवाह हो गया था। कुछ ही वर्ष व्यतीत हो पाए थे कि उसका सिंदूर दुर्भाग्य ने पौंछ दिया। वियोग विधुरा वह नारी किसी तरह दिन काटती रही। एक दिन घर में संपत्ति के बंटवारे का प्रश्न उठा तो निर्णय यह ठहरा कि इस अभागिन के सन्तान तो है नहीं इसे मायके भेज दिया जाए। वहाँ उसे शरण मिली पर विधि की विडम्बना ही ऐसी हुई कि माता-पिता तो पहले ही चल बसे थे। छोटे भाई की दुसाध्य बीमारी के कारण द्रव्य द्रव
की भाँति बहा दिया गया था। एक दिन सरकारी कर्ज को न चुका पाने के कारण उनका मकान कुर्क कर लिया गया। किराए के घर में राधा भाभी एक बुजुर्ग दम्पत्ति की सेवा सुश्रूषा करती और चूल्हे चौके का काम करती। यह सब्जी बेचकर जीविका कमाने लगी। छोटे भाई को रोग ने अशक्त बना दिया था। हाथ पांव टेढ़े हो गए थे। समय पर किराया न देने के कारण इन्हें घर से निकाल दिया गया। किसी तरह घर का इंतजाम हुआ तो वहां भी अत्याचार सहना पड़ा।शोषण का शिकार होना पड़ा। आखिर खण्डहर बने मंदिर में शरण ली।
मौसम गुलाबी ठंड लिए हुए था। सांझी पूजा का
समय था। कन्याएँ सज-धज कर विचरती तो कहीं घर-द्वारों पर पूजा का उपक्रम करती, कहीं गीत गाती नजर आ रही थीं। मैं भी साँझी पूजन में सम्मिलित होने जा रही थी। “गुड़ गुड़ गुड़ल्मो गुड़ तो जाय… स्वर मुखर था।
मेरे मार्ग में वह जीर्ण मन्दिर था। आज वहाँ दोपहर का प्रकाश नहीं था। इधर-उधर से आ रही हलकी रोशनी अंधकार से संघर्ष कर रही थी। मित्र मंडली ने हास्य विनोद के गीत लहराए ।आरती व प्रसाद वितरण के बाद कार्यक्रम समाप्त हुआ। सभा विसर्जित हुई। मैं घर लौट रही थी। मार्ग में वही खण्डहर मन्दिर हलकी रोशनी और चुप्पी मन में कसमसाहट पैदा कर रही थी। बेचारे मजदूर हैं, भाग्य से मजबूर हैं। सुख सुविधा से कोसों दूर हैं। जीवन के प्रति आस्था और ईश्वर पर विश्वास से ही इनका जीवन चल रहा है। जिसका कोई नहीं उसका भगवान् । वही मदद करता और करवाता है। मैं सोचती चली जा रही थी।
सहसा पुलिस की गाड़ी कीआवाज सुनाई दी और वह तेजी से आकर वहीं रुकी। अब रोशनी बढ़ गई थी। खंडहर में दो मानव आकृतियाँ चादर ओढ़े थीं। एक और आकृति किसी वस्तु का सहारा लिए लेटी हुई- सी पड़ी थी। लोग इकट्ठे होने लगे थे।
शायद वे तीनों विषपान कर चुके थे।
अक्षयलता शर्मा, जयपुर।