“जाऊं किस ओर?”
“जाऊं किस ओर?”
(१)
कस्बे की घनी बस्ती के अंतिम छोर पर रेलवे लाइन के पास एक चौक है। चौक के बीचों बीच गोलाकार मंच पर महापुरुष का स्टैच्यू विराजमान है ,जहां से सीधे रास्ते चारों ओर जाते हैं। माजरा इसी चांदनी चौक का है जहां मनजीत सभ्यता का चोला ओढ़े अजीबो गरीब कश्मांकश में सांसारिक धारणाओं को तोड़कर अचानक बागी हो गया है ।मन के द्वंद्व के आगे स्वयं को निहत्था जान ,सामाजिक व्यवस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह खड़े किए जा रहा है।
आज मनजीत चांदनी चौक को निरीह निगाहों से तक रहा है। उसकी नज़रें उस स्थान पर जा टिकी हैं जहां कल उसे वह स्त्री मिली थी। जहां आज सांझ, ठंड का दुशाला ओढ़े,अभी-अभी जवाँ हो चली थी। चारों ओर दुकाने सजी तो कुछ मनचले गरमा गरम चाय की चुस्कियां ले, मुख पर सिगरेट के धुएं को धुंध से मिला, ठहाके लगा रहे थे।कभी-कभी उबलती चाय से उड़ती अदरक की सोंधी_ सोंधी खुशबू ,समोसे की महक पर अतिक्रमण कर जाती, अलबत्ता तपती रेत पर मूंगफली को अग्नि परीक्षा देते देख,सभी की राय ,कर्म के सिद्धांत पर एक हो जाती। हां,पर कहीं चाट के ठेले पर ओछी बुद्धि वाली फुल्की अवश्य खुद के वैभव पर इतराती। इस संसारी व्यस्तम भीड़ में किसे अवकाश था कि मनजीत के भावों के अभावों को पढ़ सके।
अलबत्ता उसके लिए यह चौक चिरपरिचित था। क्योंकि यही से गुजरकर वह रोज अपनी कर्म स्थली जाता। फिर कल ऐसा क्या घटा था कि वह आज भी बुत बन उस जगह को एकटक ताके जा रहा था, जहां कल वह स्त्री खड़ी थी।
(२)
अरे! वह खड़ी कहां थी? सुबह के 10:30 बजे बस के इंतजार में वहां से गुजरते मनजीत को चिरपरिचित अंदाज में कहा था_”क्या आप मुझे आगे तक छोड़ देंगे?”
उसकी झील सी गहरी आंखों में कैसी आत्मीयता थी।लगता उसकी भव्यता के आगे बड़ी से बड़ी तीरंदाजी घुटने टेक देगी। तभी तो मनजीत अभी एक स्त्री के वैभव में खोया-खोया अनिर्णय की स्थिति में था कि किसी ठसियल परिचित मित्र ने आवाज दी_”मनजीत मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं।”और वह आकर बाइक की पिछली सीट पर बैठ गया। तब मनजीत ने स्त्री से पूछा -“तुम मित्र के पीछे बैठ सकती हो?”
उसे शायद जाने की जल्दी थी, उसने कहा_”हां! हां! मैं पीछे बैठ जाऊंगी ,किंतु मेरा बैग?”
और उसने अपने बड़े से बैग की दिशा में एक कोमल छोटी अंगुली कर दी। एक क्षण के लिए अंगूठी का नगीना नाच पड़ा । काया का पल्लवित रूप मनजीत के हृदय पर स्थिर हो गया। वह सोचने लगा – हे ईश्वर तूने पुरुष के मन को कैसा बावला और स्त्री के तन को कैसी भव्यता प्रदान की है। मन हुआ जैसी सांचे में ढले सौंदर्य को सदैव के लिए हृदय में कैद कर लूं। फिर बड़ा सा बैग कैसे रखूं? यही उथल-पुथल में था कि बाइक की टंकी पर रख लूं। तभी एकाएक कठोर हृदय मित्र ने आघात किया_”बैग नहीं बन पाएगा ।”
मनजीत, मित्र और लोगों के बीच तमाशाबीन बनना नहीं चाहता था, यह कतई प्रदर्शित नहीं होने देना चाहता था कि वह स्त्री को ले जाने के लिए लालायित है । तब मनजीत भी शिष्टाचार बस बोला _”हां !हां! यह बैग नहीं बन पाएगा।” मन की बात मन में ही दफन हो गई। लोग क्या कहेंगे? यही सोच स्त्री को वहीं छोड़ मनजीत को गंतव्य की ओर बढ़ा ले गई। किंतु वह स्त्री कौन थी? कहां की थी? कैसी थी? सोचता मन सारी सामाजिक सरहदों से बेपरवाह वहीं ठहर गया। अबोध की प्रेम पिपासा मन ही मन रास्ते भर मित्र को कोसती रही।
पंद्रह मिनट गुजरे, गंतव्य पर आकर गाड़ी रुकी, मित्र के उतरने की देर थी कि बिना समय गंवाए ,मनजीत पागलों की भांति पुनः चांदनी चौक की ओर मुड़ गया, जहां स्त्री को छोड़ा था।अब की उसके वाहन में मन सी गति थी। भावों में स्त्री का प्रेम पाने की तड़प ,मिलन का जुनून था। थोड़ी देर पहले जो मन सांसारिक सभ्यता का चोला ओढ़े था, वही अब सारी सरहदों को लांघने को उतारू था। सोचता_ स्त्री को बैठा लेना था। लोगों का क्या ,जो सोचना होता, सोचते? देखो, मैंने दूसरों के खातिर अपने ही मन से कैसी बगावत कर ली। बाहर की सामाजिकता तो हासिल कर ली, किंतु मन से लूट गया , उसका क्या ? इस असहनीय पीड़ा का हरजाना क्या समाज दे पाएगा? फिर समाज की हास्य, व्यंग्य की चिंता से अनभिज्ञ सोचता है कि अबकी स्त्री को उसके गंतव्य तक पहुंचा कर ही दम लूंगा । किंतु संशय ,कुशंकाओं का भी जोर बढ़ता जाता कि-क्या वह स्त्री अभी भी चौक पर होगी कि कोई साधन मिल गया होगा? बस यही कश्मांकश से भरा मन चांदनी चौक में दाख़िल हुआ तो कुछ लोग सोच रहे थे_”जनाब अभी-अभी तो यहां से गए थे ,फिर वापस कैसे?”किंतु इन सब बातों से बेपरवाह मन, स्त्री को खोजता।परंतु यह क्या? स्त्री तो नदारत थी। उसे वहां न पाकर मनजीत का मन बैठ गया। उसकी आंखों के सामने गहरा संताप था,पीड़ा थी। क्रुद्ध मन सोच रहा था- दोस्त की बात सुनी ही क्यों?
(३)
बस कल की यही भड़ास मन में चल रही थी। मनजीत आज पलकों में उन अनमोल पलों को जीने की जद्दोजहद कर रहा था। मस्त सांझ,ढलती रात्रि में विलीन होने को अग्रसर थी। ठेले, ठिलिया,पंसारी दुकान समेट रहे थे, किंतु उसका उदास मन वहीं कहीं ठहर गया था। तभी एकाएक ध्यान भंग करती सामने से तेज भोपू बाजती बस, चौक का एक पूरा चक्कर लगाकर, धीमी गति से दूसरी ओर मुड़ गई। एकाएक मनजीत का ध्यान उस ओर गया ,तो उसने देखा एक स्त्री हाथ बाहर निकाल कर मुस्कराहट भरा प्रेम अभिनंदन मनजीत की ओर उछाल रही है। शोर गुल में शब्द गौण थे, परंतु अभिव्यक्ति स्पष्ट प्रेममयी थी, शायद स्त्री के मन ने भी मनजीत के हृदय को पढ़ लिया था और उस प्रेम की अमिट छाप हमेशा के लिए छोड़, अलविदा कह दिया था। बस प्रेम के कुछ अनमोल क्षण ही साक्षी बन सके कि बस सीधे सपाट रास्ते में दूसरी दिशा की ओर गतिमान हो गई।
यह वही कल वाली स्त्री थी, जिसे मनजीत दूर तक जाते देख, अपने बिल्कुल पास अनुभव करता रहा ।फिर एकाएक वह अपनी जगह से उठा तो सोचकर उसका दिमाग चकरा रहा था_ “जाऊं किस ओर?”
अजय कुमार बोपचे