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रोटी

रोटी

रामधीर को साहित्य का नशा चढ़ गया था, रह रह कर सारा ध्यान साहित्य की ओर खिंचा चला आता था । आय का जरिया बिलकुल नहीं । साहित्य से कोई आमदनी नहीं होती और परिवार चलाना मुश्किल हो गया था । आर्थिक तंगी से तंग आकर रामधीर ने आखिर निर्णय ले ही लिया, साहित्य से विदा ले लूँ । रामधीर के पास बेशुमार साहित्यिक पुस्तकें थी। सोचा सबको बेचकर पैसे एकत्र कर लूँ । कुछ दिन का राशन आ जाएगा । मुंशी प्रेमचंद और निराला जी की कुछ पुस्तकें एक थैले में भर राशन दुकान की तरफ चल पड़े ।
रामधीर ने पुस्तकें दुकानदार को दिखाते हुए पूछा-‐-‘ भाई साहब इसे क्या भाव लोगे ‘?
दुकानदार ने कहा–‘ चार रूपये किलो ‘
रामधीर ने कहा–‘ केवल चार रूपये किलो ! इतने महान साहित्यकारों की पुस्तकें हैं ये सब’ ।
दुकानदार ने कहा–‘ हमें साहित्यकारों से क्या मतलब ! हमारे तो यह मशाला बांधने के काम आयेंगी। आप इसे पुरानी किताब बेचने वाले को दे दो कुछ महंगे में बिक जायेगीं ‘।
रामधीर पुस्तकों का थैला उठा कर चल पड़ा ।
पुरानी किताब बेचने वाले दुकानदार को दिखाते हुए पूछा–‘ भाई साहब इसे क्या भाव लोगे?’
दुकानदार ने कहा–‘ एक पैसे में भी नहीं ‘,आजकल ये पुस्तकें नहीं बिकती हैं। मेरे पास तो सैकड़ो पड़ी हैं…,कुछ दीमक खा गयीं, कुछ चूहे कुतर गये। जब से इन्टरनेट शुरू हुआ है तबसे यें पुस्तकें नहीं बिकतीं हैं ।आजकल युवा पीढ़ी नहीं पढ़ती, नयी पीढ़ी को कम समय में उचाईयाँ छू लेने का ख्वाब देखने की आदत पड़ गयी है । आप इसे किसी पान ठेले वाले को दे दो । दो पैसे ज्यादा मिल जाएंगे ‘ ।
रामधीर ने पुस्तकों का थैला उठाया और पान ठेले की तरफ चल पड़ा । पान ठेले वाले को पुस्तकें दिखाकर रामधीर ने पूछा—‘ भाई साहब इसे क्या भाव लोगे ‘?
पान ठेले वाले ने पुस्तकों को उठा कर वजन का अंदाजा लगाया और दो सौ रुपये निकाल कर दे दिये ।
रामधीर ने चुपचाप रख लिये…और जैसे ही चलने को हुए, देखा…
पान ठेले वाले ने मुंशी प्रेमचंद चित्र वाले पन्ने को फाड़ा और उसमें पान लपेट कर ग्राहक को दे दिया। ग्राहक ने पान खाया और पन्ने को सड़क पर फेंक दिया ।देखते-देखते न जाने कितने आने-जाने वाले लोगों के पैरों के नीचे मुंशी प्रेमचंद चित्र वाला पन्ना, दबते चला गया… । वहीं एक और साहित्यकार खड़े हुए थे । उन्होंने सारा नजारा देखा तो गुस्से में आ गए… और उन्होंने रामधीर से कहा—‘ आप बड़े विचित्र आदमी हो! तुम्हें दर्द नहीं होता…एक तो साहित्यकारों की पुस्तकें सस्ते मूल्य पर बेच दीं, वो भी पान ठेले वाले को ! और वे पलटकर गुस्से में पैर पटकते हुए चलने लगे… रामधीर की आँखे भर आयीं । आ्ँसू हाथों से पोछते हुए वे करूणा-से भाव से बुदबुदाये—-‘ दर्द तो बहुत होता हैं…। पर क्या करूँ, अगर आज ऐसा नहीं करता, तो शायद अपने बच्चों को रोटी नहीं दे पाता… ‘।

दिलीप अग्रवाल
कोरबा

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