अफसोस
अफसोस
प्लास्टिक न चाहकर भी हमारे घर में, हमारे शहर और सागर के गहरे तल तक पहुंचता ही जा रहा है।
आजादी की लड़ाई हम जीत गये।
स्वच्छता से अस्वच्छता का सफर तय कर फिर रिवर्स लिया और कई शहर इसमें प्रथम, द्वितीय व तृतीय क्रमांक पर पहुंच गये।
लेकिन प्लास्टिक को न रोक सके न तोड़ और न अपने जीवन से बाहर फैक सकें।
हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया सुबह उठने से लैकर रात को सोने तक न जाने कितने प्रोडक्ट्स के साथ यह हम से जूड गया।
कई कहानियां और किस्सों का हिस्सा रहा।
जन आंदोलन भी हुआ बड़ी संख्या में नेशनल बिंग कम्पनियों ने पोलीथीन बेंड भी कर दिया।
पेपर बैग ने उसे रिप्लेस कर लिया पर दो स्थानों से हटकर सौ. स्थानों पर टाप टेन पर अपना सिक्का जमा लिया।
आज ही कि बात कहूँ तो मैंने भी वही भोलापन दिखा दिया।
मार्केट जाते समय प्लास्टिक गमले खरीदारी की कारण रंग लुभावन और लाईट वेट, सबसे प्रमुख कारण दाम में मुझे दुगुनी खुशी हुई क्योंकि सिमट और माती के आसमाँ छू रहे हैं
समझोता आवश्यक भी था 200 का गमला, 150 का पौधा, 50-100 रूपये की खाद एक गमले पर प्लास्टिक के, उसी प्रकार माटी या सिमट का 800 रूपये प्रति गमला अब बताइए कि एक समझदार गृहणी होने का दायित्व तो निभाना तो होगा ही तो बस कुल मिलाकर मैंने प्रकृति प्रेमी होकर भी कहीं न कहीं प्रकृति का नुकसान तो किया पर क्या करें।
हा! यदि यह आफशन न होता और माटी का मौल अधिक न होता तो शायद प्रकृति प्रेमी होने पर गौरव महसूस कर सकतीं थी और प्लास्टिक बन्द का मौर्चा संभाल लेती।
अफसोस!
हो न सका
सौ. निशा बुधे झा ‘निशामन’
जयपुर