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नारियल पिता

नारियल पिता

कहाँ से शुरू करूँ ,समझ नहीं आता या जब पिता के घर जन्म लिया तब परिस्तिथियाँ कहाँ थी लिखने- पढ़ने की? पर मां बाबूजी दोनों ही साक्षर थे तो मुझे ये सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
शुरुआत सरकारी विद्यालय से हुई ।
पिताजी मजदूरी और मजबूरीवश हमसे दूर रहते थे। मुफलिसी के दिन थे।
मां हम दोनों भाई- बहिनों को एक एक रोटी से भूख को दबाकर स्कूल भेजती और साथ में आधी- आधी रोटी और देती की स्कूल जाकर मध्यान्तर में खा लेना लेकिन भूख थी कि सरजी की उपस्थिति के समय ही जोर मार देती और हाज़िरी बोलकर खत्म होने तक हमारी रोटी भी खत्म हो जाती और मध्यान्तर में आकर मां की आंखों के सामने आकर खड़े हो जाती, बेबस मां अपना माथा धुन लेती।
फिर बाबूजी हमको जहां उनकी मजदूरी थी, वहीं साथ ले गए फिर शुरू हुआ हमारा शिक्षा -जीवन का आधार कार्यक्रम ।
विद्यालय निजी था ,पर सरकारी के माफिक पर एक ख़ूबसूरती थी कि वहाँ सब मन से पढ़ाया जाता और में मन से पढ़ती। मुझे जनवरी के प्रवेश के साथ बाबूजी का पूरा समय मिला ।शाम को सारा पढ़ाते ,सुनते फिर सोने देते। तीन माह में ही मेरी पहली कक्षा पास हो गई, दूसरी की हिन्दी व गणितीय आधारभूत संक्रियाएं मुझे मई -जून में सिखाकर जब जुलाई में विद्यालय गई तो प्रधानाध्यापक बोले कि ,इसको तीसरी में बैठा देते हैं,और बच्चों से बड़ी लगती है। इस तरह १५माह में तीन कक्षा उत्तीर्ण हो गई।
एक दिन मेरे ताऊजी के पुत्र ने कह दिया कि चाचा मोटी पेंसिल खाती है तो उस दिन मुझे उनका हिटलर वाला रूप देखने को मिला ।मुझे दोनों हाथ आगे कर, घुटने से कुर्सी बनाकर खड़ा किया और खुद लग गए बैग सिलने ।पता नहीं कितनी देर में खड़ी रह पाई पर दूसरे दिन बुखार जरूर था।फिर तो बस पढ़ाई ,पढ़ाई सिर्फ पढ़ाई।।
लगन ऐसी की रद्दी कागज या बनिया की पुड़िया पर लिखा भी बिना पढ़े नहीं फेंकती।
छठवीं कक्षा में सरकारी स्कूल में प्रवेश लिया । गुरुजी मिले,बाबूजी के सहपाठी ,उनको जाने क्या लगा कि उन्होंने कहा गिर्राज लाली को पढ़ाई से मत रोकना।
आस -पास में अनुत्तीर्ण होते ,पूरक आते ,कृपांक से पास होते पर में सिर्फ उन दिनों अच्छी द्वितीय श्रेणी से पास होती क्योंकि मेरे कक्षाओं के साथ हमारे घर में भाई -बहिनों की संख्या भी बढ़ रही थी ।बाबूजी से डर इतना था कि गृहविज्ञान का कोई भी सामान मंगवाने को मां से कहते ,मां बिचारी जैसे तैसे लाती और वचन लेती आगे मत पढ़ना मेरे बसकी नहीं है।
नवीं कक्षा में तो पढ़ाई रोक ही दी ,पर उन्ही गुरुजी ने कहा कि बालिका विद्यालय है क्या परेशानी है ,पढ़ा ले। जैसे -तैसे दसवीं भी एक झटके में पास कर ही ली।दसवी के बाद मेरे दूसरा भाई जो कि चार बहिनों बाद हुआ था।अब बिल्कुल बंद, स्कूल नही जाएगी ,भाई को पालना है।
१४जून को भाई के जन्म के बाद विराम लग गया ।गृह कार्यों में व्यस्त हो गई।१५ जुलाई प्रवेश की अंतिम तिथि थी ।मैंने डरते हुए बाबूजी से कहा कि बाबूजी आज प्रवेश खत्म हो जाएंगे ,मेरा प्रवेश करा दो में घर का काम १२ बजे आने के बाद कर लूंगी।मां को कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगी बाबूजी ।
बाबूजी कुछ पिघले ,बरसात के दिन वैसे ही मुश्किल से कटते थेअपनी पसन्दीदा कलाई घड़ी को गिरवी रखकर शुल्क की व्यवस्था की गई और फिर पढ़ाई का दौर शुरू हुआ।ग्यारहवीं भी हो गईं ,परिणाम अच्छे द्वितीय श्रेणी का रहा ।
फिर शादी की तैयारी शुरू हो गई और मूँड़ मुंडाते ही ओले भी पढ़ गए।
लेकिन एक साल के ब्रेक के बाद शिक्षक – प्रशिक्षण को भेज दिया गया।पढ़ाई पहले भी व्यवस्थाओं से चलती थी अब ज्यादा परेशानी हो गई पर अब माँ उनका सहारा बनकर खड़ी हो गई।सर्दियों में मेरी बहिन और मां ने रजाई में धागे डाले ,लोगों का अनाज ,घर के काम में सहायता शुरू की ,स्वेटर बने जैसे तैसे दो साल बीत गए।
हां ,एक बहुत ही त्याग की बात कहूँ तो इन दो सालों में मेरे सभी भाई- बहिनों की पढ़ाई रोक दी गई थी,परिवार में संघर्ष था पर ये बलिदान सबका रंग लाया ।
मेरी प्रशिक्षण के तीन माह बाद ही नोकरी लग गई मैं एक बहिन को साथ ले नोकरी करने लगी, सबको स्कूल भेजा जाने लगा।इस बीच दो भाई बहिन सिर्फ साक्षर ही हो पाए।
फिर मैंने जैसे- तैसे पिताजी की गृहस्थी को संभाला क्योंकि पिताजी मेरा संबल थे। जीवन में कई उतार -चढ़ाव आए।
चार बहिन और दो भाइयों की शादी कर दी थी ।एक भाई दसवीं में था जब उनको कर्क रोग जैसी नामुराद बीमारी ने घेर लिया ।उन्होंने डॉ से कहा ये दीवाली अपने घर की मनाना चाहता हूं,दीवाली के बाद मेरे घर वो आये और मेरे बगीचे की लगी हरी मेथी को तोड़कर पराँठे बनवाये अचार और दही के साथ भर पेट भोजन किया।ये उनका मेरे घर और शायद खुद के घर का भी भरपेट और रुचिकर अन्तिम भोजन था उसके बाद थेरेपी ने उनके गले से कौर नहीं जाने दिए ।१६जनवरी २००७ को उन्होंने अन्तिम साँस ली ।मेरे लिए वो बहुत ही मनहूस दिन था।सबके लिए सब है पर मेरा सारा आसमान कहीं खो गया है।
आज में उनके आशीर्वाद के चलते प्राचार्य पद के लगभग हूँ , उनकी जिम्मेदारियां आज भी बखूबी निभा रही हूँ क्योंकि उन्होंने मुझे बेटा समझकर पढ़ाया ,तो जिम्मेदारी भी उसी तरह आज भी संभाल रही हूं।मेरा बेटा डॉ है और बेटी भी सफलता की ओर है ।सब के पास सब है पर मेरे लिए उनकी कमी है और रहेगी।अपने जीवन के वानप्रस्थ के समय मुझे लिखने का शौक लगा है ये उनकी और परिस्थितियों की देन है।
उनका प्यार मुझे संबल देने वाला ,गुस्सा मुझे डराने वाला और स्नेह मेरी ख़्वाहिश को पूरने वाला था ।मेरे बाबूजी का नारियल रूप मुझे बहुत याद आता है उनका ना होना सदा अखरता है।।

सुनीता वर्मा “सन्ध्या ‘
उपप्राचार्य ,बांदीकुई

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