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माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्याः

(5 जून विश्व पर्यावरण दिवस:एक विशिष्ट दिन)
माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्याः

भारतीय मेधा ने जल,जंगल और जमीन के महत्व को जान लिया था,इसीलिए हमारी संस्कृति में इनके पूजा का विधान है।इनके यथोचित उपयोग का प्रावधान है।हमारी भारतीय संस्कृति में धरती को माता की संज्ञा दी गई है।प्रकृति को ईश्वर का रूप माना गया है।हमारी संस्कृति में वृक्षों को देव तुल्य और जीवन का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया है। हमारी पूरी सभ्यता एवं संस्कृति जल,जंगल,जमीन,जलवायु,जीव-जंतु के इर्द- गिर्द ही घूमती है।वर्तमान औद्योगिक विकास और भौतिकता की बढ़ती चाहत ने हमारे लिए जीवन का संकट खड़ा कर दिया है।पर्यावरण का संतुलन समाप्त हो गया है।इंसानी जीवन शैली पूरी दुनिया को जहरीली गैस का चैंबर बनाने की ओर अग्रसर है,क्योंकि दुनियाभर में पैदा होने वाली दो तिहाई ग्रीन हाउस गैसों के लिए हमारी गलत जीवन शैली ही जिम्मेदार है।विकास के नाम पर पुराने और विशालकाय वृक्षों की कटाई कर दी जा रही है।यदि हम सभी अपनी गतिविधियों को नियंत्रित करें तो 2050 तक पृथ्वी पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 40 से 70 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।वास्तव में संतुलित जीवन शैली दुनिया के लिए लाभदायक है।
प्रकृति को समर्पित दुनियाभर में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिवर्ष 05 जून को मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है- “पर्यावरण दिवस”। पर्यावरण और जीवन का अटूट संबंध है फिर भी हमें अलग से यह दिवस मनाकर पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लेने की आवश्यकता पड़ रही है। यह चिंताजनक ही नहीं, शर्मनाक भी है।यह सभी हमारी गलत जीवन शैली का परिणाम है,जो हमें एक भयानक संकट की ओर ले जा रही है।आज सुबह नित्य क्रिया के पश्चात जब हाथ में मोबाइल आया तो गुड मॉर्निंग की जगह पर्यावरण दिवस के बधाई संदेशों की बाढ़ दिखी।मैंने अधिकांश लोगों से बात किया कि केवल संदेश या धरती पर रोपा कोई पेड़,उत्तर स्वाभाविक और अपेक्षित था।मोबाइल के की पैड पर उंगली चलाना आसान है और इस आग बरसती गर्मी में पेड़ लगाना कितना कठिन। हां आज उत्सव है तो बिना शामिल हुए फोटो नहीं मिलेगी,सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलेगी,प्रकृति प्रेमी होने का प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा। सजधज कर जाना,पहचाना या अनजाना एक पौध लगाना,पानी देना और फोटो अखबार में भेजकर हम इतिश्री कर लेते हैं।वापस पानी डालने तो दूर,झांकने भी नहीं जाते।एक नन्हें से पौधे की बलि चढ़ा देते हैं भ्रूण हत्या कर देते हैं।ऐसा ही हमारा सरकारी जंगल मुहकमा वन महोत्सव या वृक्षारोपण अभियान प्रतिवर्ष चला रहा है,लेकिन पेड़ दिखाई नही पड़ते है,खजूर जरूर सड़क के बीचोंबीच खड़ा मिलता है—-पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।आखिर कब तक हम स्वयं अपने आप को छलते रहेंगे और आने वाली पीढ़ी को धोखे में रखेंगे,प्रदूषित पर्यावरण सौंपकर जायेंगे,जहां जल,मिट्टी,हवा सभी में जहर है?यह विचारणीय है,गंभीर चिंतन का विषय है।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्टॉकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया। इसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया।इस बार विश्व पर्यावरण दिवस की थीम भी “सिर्फ एक पृथ्वी” रखी गई है।क्योंकि पर्यावरण का मुद्दा सभी देशों से जुड़ा हुआ है,संपूर्ण पृथ्वी से जुड़ा हुआ है।
इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का जन्म हुआ तथा प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया। तथा इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए राजनीतिक और सामाजिक चेतना जागृत करना और आम जन मानस को प्रेरित करना था।उक्त गोष्ठी में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने ‘पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभाव’ विषय पर व्याख्यान दिया था। पर्यावरण-सुरक्षा की दिशा में यह भारत का प्रारंभिक कदम था। तभी से हम प्रति वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे हैं।पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 19 नवंबर, 1986 से लागू हुआ। उसमें जल, वायु, भूमि – इन तीनों से संबंधित कारक तथा मानव,पौधे, सूक्ष्म जीव, अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं।
हमें एक संकल्प लेना होगा धरती मां को हरा भरा करने का,जल को संरक्षित करने का,प्रदूषण को कम करने का।इसके लिए आवश्यक है की आने वाली पीढ़ी के सुखद भविष्य के लिए प्रकृति का साथ निभाएं।अधिक से अधिक वृक्ष लगाएं,उनकी रक्षा करें,उन्हें बड़ा करें,तभी हम उन्हें एक संतुलित,जैव विविधता से परिपूर्ण और स्वस्थ पर्यावरण दे पाएंगे।
जोहार प्रकृति! जोहार धरती मां!

डा. ओ. पी. चौधरी
अवकाश प्राप्त आचार्य एवम् अध्यक्ष,मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज,वाराणसी।

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