लघु कथा- ” मजबूर इंसान “
लघु कथा- ” मजबूर इंसान “
” अरे ओ रामधन, कहां हो? चलना नहीं है क्या? फसल सूखने पर क्षतिपूर्ति के लिए ब्लाक में फारम भरने जल्दी चलो नहीं तो फारम खत्म हो जाएगा। तो फिर बाजार से ब्लैक में खरीदना पड़ेगा। सुन नहीं रहे हो क्या?”
मंगनी महतो ने दरवाजे पर खड़े होकर आवाज दी।
रामधन की पत्नी परबतिया ने घर का दरवाजा खोला और कहा,” कल उ ब्लाक में गइल रहलन। उदास होके ओने से अइलन। पूछला पर कहलन की अब जिअल बेकार बा। सरकार तो गरीबी हटावे के वादा कइले रहे। लेकिन लागता कि केहु गरीब धरती पर ना रह पाई।”
मंगनी महतो ने फिर पूछा,” वह कहां है?”
परबतिया ने कहा ,” उ सबेरे ही उठ के कहीं चल गइलन ह। हमार त मन बहुत घबराता।”
मंगनी महतो ने परबतिया से कहा,” घबराओ मत। मैं पता करता हूं।’ वह दौड़ते हुए रेल पटरी की तरफ आया। उसने देखा कि रामधन पटरी के बीचोबीच बैठा है। सामने से रेलगाड़ी आती दिखी। उसने रामधन का हाथ पकड़कर पटरी से दूर लाया और उसे समझाया कि आत्महत्या पाप है।
रामधन ने कहा,” भूख से मरना कौन सा पुण्य है? मैं तो मजबूर इंसान हूं।”
— बिनोद कुमार पाण्डेय–
ग्रेटर नोएडा