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शीर्षक- गुरु की डाँट

शीर्षक- गुरु की डाँट

ऋतु एक बहुत ही प्यारी बच्ची थी। अल्पभाषी, मृदुभाषी, शांत ,सरल और साथ ही पढ़ाई में बहुत मेधावी। घर-परिवार और आस-पड़ोस के सभी लोग उसे बहुत प्रेम एवं स्नेह देते थे। अपने अध्यापकों की तो वह प्रिय थी ही। सदैव परीक्षा में अव्वल आना उसका प्रथम ध्येय था किंतु इतना होने पर भी एक अवगुण उसे कभी-कभी अपमानित करा जाता था और वह था उसका असुंदर हस्तलेख।
ऋतु की छठी कक्षा की हिंदी की अध्यापिका ने उसे काफी बार समझाया, डाँटा भी पर ऋतु चाह कर भी अपने हस्तलेख में सुधार नहीं कर पा रही थी। अध्यापिका बार-बार कहती कि हस्तलेख साफ न होने की स्थिति में तुम्हारे अंक भी कट सकते हैं पर कोई सुधार होता नहीं दिख रहा था। एक दिन ऋतु की कॉपी जाँचते हुए उसकी अध्यापिका को बहुत तेज क्रोध आया और उन्होंने ऋतु के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद कर दिया। ऋतु रोने लगी। इससे पहले ऋतु को किसी ने कभी भी थप्पड़ नहीं लगाया था अतः ऋतु से यह अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ।
ऋतु ने उसी दिन एक तख्ती, खड़िया, कलम और स्याही खरीदी और प्रतिदिन एक घंटा वह सुलेख का अभ्यास करती। एक महीने के भीतर ही ऋतु का हस्तलेख ऐसा हो गया कि मानो किसी ने पृष्ठ पर मोती जड़ दिए हों । विद्यालय की कोई अध्यापिका ऐसी नहीं थी कि जो मेधा से अपना रजिस्टर न लिखवाना चाहती हो। विद्यालय में प्रतिवर्ष होने वाली प्रतियोगिताओं में जब सबसे सुंदर लेख के लिए ऋतु को प्रथम पुरस्कार मिला तो उसकी आँखें छलक गईं। प्रातः:कालीन सभा में सभी विजेता विद्यार्थियों को जब अपनी विजय का कारण बताने के लिए कहा गया तो ऋतु ने ध्वनि विस्तारक को हाथ में पकड़ कर कहा कि मेरी जीत के लिए केवल और केवल मेरी हिन्दी विषय की अध्यापिका श्रीमती अनीता गुप्ता जी हकदार हैं। यह सुनते ही हिन्दी अध्यापिका मंच पर आई और ऋतु को गले से लगा लिया। ऋतु ने अध्यापिका के पाँव छूते हुए कहा कि गुरु की डाँट और सुनार की चोट से डरने वाला कभी गढ़ा नहीं जा सकता और ऋतु आज तक इसी वाक्य का परिपालन करती है।

डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ,उत्तर प्रदेश

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