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प्रेमचंद और आज का सिनेमा

प्रेमचंद और आज का सिनेमा

डॉ. मिताली खोड़ियार,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

कहते हैं यदि आप खुश हैं तो यात्राएं कीजिए और दुखी हैं तो यात्राएं कीजिए| मुझे लगता है कि अगर आप खुश हैं तो जीवनी पढ़िए और दुखी हैं तो भी किसी की जीवनी पढ़िए| किसी महान व्यक्ति के जीवन के संघर्ष को पढ़कर आप अपनी खुशियां देखेंगे तो ब्लेस्ड महसूस करेंगे वही जब आप उनका दुख देखेंगे तो आपको अपना संघर्ष कम ही महसूस होगा| हाल ही में लाइब्रेरी में मदन गोपाल की ‘कलम का मजदूर’ हाथ में आई| रीतिवाचक क्रिया विशेषण का प्रयोग कर मैंने फटाफट उसे पढ़ लिया| शुरुआती पृष्ठों में प्रेमचंद द्वारा अपनी कुरूप पत्नी को नापसंद करना और उसे मायके से वापस ना लाना जैसे प्रसंगों ने मेरा मन खट्टा कर दिया| एक लेखक तो कुरूपता में भी सुंदरता देख लेता है| एक जगह लिखा है कि- पत्नी कुरूप तो थी पर जुबान की भी कड़वी थी| मैं पत्नी के साथ निभा लेता पर चाची और पत्नी की आपस में कलह मुझे शांति से रहने न देती| उनकी पत्नी की शर्त थी कि जब प्रेमचंद मुझे मायके लेने आएंगे तभी जाउंगी| प्रेमचंद न गए न वो आयी| प्रेमचंद की दूसरी शादी शिवरानी देवी से हुई| पहली पत्नी ने इस विवाह का कोई विरोध नहीं किया| प्रेमचंद को पहली पत्नी भले ही कुरूप और ज़ुबान की कड़वी लगी हो परन्तु मुझे तो वे एक भले दिल की आत्मसम्मानी महिला लगीं|
हैरी पॉटर में मुझे हैरी की तुलना में हरमायनी का किरदार ज्यादा आकर्षित करता है वैसे ही शिवरानी देवी के व्यक्तित्व ने भी मुझे खासा आकर्षित किया| सरस्वती प्रेस खोलना, हंस और जागरण जैसी पत्रिका घाटा सहकर भी चलाना, मेरे मस्तिष्क के उस हिस्से को निष्क्रिय कर दिया जो दिन रात सोचता था कि यह निर्णय तो गलत हो गया ऐसा नहीं करना चाहिए था| जिस तरह हम रिश्तेदारों को सहते हैं प्रेमचंद ने भी बहुत सी विषम परिस्थितियों को सहा| उनपर आरोप लगे कि वे पश्चिम के साहित्य की नक़ल करते हैं, अपने आपको उपन्यास सम्राट कहते हैं| जिस प्रकार लोग आपको शादी करने और बच्चा पैदा करने की सलाह देते हैं| उन्हें भी परामर्श दिया गया कि वह बूढ़े हो चुके हैं, उन्हें लिखना छोड़ देना चाहिए क्योंकि उनका युग समाप्त हो चुका है| दूसरी भाषाओं की पत्रिकाओं ने भी उनपर बहुत मनमानी बातें उछाली| प्रेमचंद अपने जीवनकाल में कभी भी शांतिनिकेतन क्यों नहीं गए अब तक मेरे लिए रहस्य बना हुआ है| आपको कारण पता हो तो बताएं|
आज की पीढ़ी जरा सी शारीरिक तकलीफ नहीं सह पाती, प्रेमचंद पेचिश जैसी बीमारी से कई वर्षों तक लड़ते रहे, कष्ट सहते रहे और लिखते रहे| भाग्य पर विश्वास करने वाले से कर्म पर विश्वास करने वाले में बदलते गए| वे सिखाते हैं जीवन जैसा भी हो अंत तक जीना ही चाहिए भले लड़ते-भिड़ते जियो पर हार नहीं माननी चाहिए| मृत्यु मुँह उठाए घूर रही हो तब भी जीने का स्वप्न टूटना नही चाहिए| सोचती हूं कि अच्छा ही हुआ कि प्रेमचंद जी अभी नहीं है नहीं तो ‘एनिमल’ जैसी फिल्म तथा उसके नायक की हीरोगिरी पता नही किस प्रकार झेल पाते| साहित्य और फिल्में निश्चित ही मानव मन पर प्रभाव डालती है परंतु अगर प्रभाव नकारात्मक है तो समाज में वीभत्सता भी भर सकती है| प्रेमचंद जी ने लिखा है-“सिनेमा अगर हमारे जीवन को स्वस्थ आनंद दे सके तो उसे जिंदा रहने का हक है| अगर वह हमारे क्षुद्र मनोवेगों को उकसाता है निर्लज्जता, धूर्तता, कुरुचि को बढ़ाता है और हमें पशुता की ओर ले जाता है तो जितनी जल्दी उसका निशान मिट जाए उतना ही अच्छा” दुख है कि एनिमल जैसी फिल्में हिट होती है और करोड़ों कमाती है उसे न जाने कितने ही लोगों ने चाव से देखा है पर समाज की सच्चाई को बताने वाले, भारत की आजादी का स्वप्न देखने वाले, कर्मठ प्रेमचंद के साहित्य को कितने लोगों ने पढ़ा है?

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