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बस्तरिया कहानी : रमिया

बस्तरिया कहानी : रमिया

रमिया आज फिर स्कूल नहीं आई. महुआ बिनने गई होगी. महुआ लेकर सीधे भट्ठी जाएगी बेचारी. फिर पैसे लेकर अपने घर जाएगी और अपने बाप को दे देगी. उसका बाप पैसे लेकर भट्ठी जायेगा तब उसे दारू मिलेगी. अब पहले जैसा नहीं रहा कि भट्ठीदार जब चाहे किसी को उधार में दारू दे देगा ! जबसे सरकारी आदमी आया है भट्ठी पर गांव के मजदूर दारू पीने के लिए तरस रहे हैं बेचारे! कहते हैं-इससे तो अच्छा पहले ही था, भट्ठीदार बाबू अपने आदमी थे, अपने गांव के आदमी. मौका-गैर मौका पैसे नहीं रहने पर भी दारू पिला देते थे. गांव वाले उनके घर खेती-मजदूरी करके पैसे चुका देते थे.

अब पूरे इलाके में मलेटरी के जवान दिखाई दे रहे हैं. वे भी हथियार से लैस. छह महीने से सरकारी स्कूल में उन्हीं का डेरा है. स्कूली बच्चे अब उधर नहीं जाते. गांव के पास ही सरकारी टेंट में बैठकर पढाई कर रहे हैं. स्कूल का मास्टर सरकारी आदमी नहीं, वह सरपंच का आदमी है. गांव की भाषा में पढ़ाता है. वह भी बहुत डरता है सरपंच से. सरपंच गांव का पुराना आदमी है] पढ़ा-लिखा नहीं है तो क्या हुआ, उसकी पहुँच सरकारी महकमें तक है. उसी के ठप्पे से मास्टर का वेतन निकलता है. सरपंच जब ठप्पा लगाता है, तब उसके दारू के लिए पैसे मिलते हैं.

रमिया का बाप ठेकेदार का आदमी है. जबसे गांव को सड़क से जोड़ने का सरकारी अभियान चला है, रमिया का बाप जंगल के पेड़-पौधे काट रहा है. ठेकेदार का दबाव रहता है, पर मजदूर बेचारे क्या करें! उन्हें नक्सलियों का डर रहता है. जंगल में उनके डर से कोई जाता नहीं. मलेटरी वाले भी किसी के बाप-बेटे हैं. नौकरी की गरज से वहां डेरा डाले हैं. इधर-उधर भटक रहे हैं, पूरा जंगल अशांत हो गया है. करीब-करीब रोज ही जंगल में दो-एक बार बन्दूक की फायर सुनाई दे जाती है. आदिवासी अपनी झोपड़ी में दुबक जाते हैं. मलेटरी वाले भी उन्हें कभी-कभी नक्सलाइट समझ कर गोली दाग देते हैं.

पिछले दिन नक्सलियों ने रमिया के बाप को पकड़ लिया था. उसे धमकाये भी कि सरकारी ठेकेदार के बहकावे में मत पड़े वह. जंगल में सरकारी प्रवेश होने से आदिवासी मारे जायेंगे. उनके रोजगार छीन जायेंगे. कीमती लकड़ियां शहरों में चली जाएँगी. यहाँ सरकारी कारखाना लग जायेगा तो हमारा धंधा मार खा जायेगा. इसलिए रमिया का बाप ठेकेदार का काम छोड़ने का मन बना रहा है, नहीं तो नक्सली उसे मार डालेंगे.

घाटी में तेंदू पत्ता का सीजन है. मजदूर पत्ती तोड़ने में लगे हैं. सरकारी ठेकेदार की गाड़ी पर पत्ती की बोरियां लद रही हैं. रमिया की मां अपनी बकरियों को लेकर उधर से गुजर रही है. ठेकेदार उसे आवाज देकर बुलाता है. पर वह अनसुना कर आगे बढ़ती है कि ठेकेदार के आदमी उसकी एक बकरी को अपनी गाड़ी में डालकर चल देते हैं. रमिया की माँ जंगल में घुस जाती है . बकरियां गांव की ओर दौड़ जाती हैं.

गांव के हाट में बाहर के दुकानदार आये हैं. गांव के आदिवासी उनसे सौदा करते हैं. दुकानदार अपनी चीज तौलकर बेचते हैं. लेकिन गांव वाले अपने सामान डिब्बे से नापकर बेचते हैं. एक झोला महुआ के बदले दो किलो सरकारी चावल तो कार्डधारी को भी मिल जाते हैं. सरकारी दुकानदार एक डिब्बा चिरौंजी लेकर एक किलो का सरकारी नमक का पैकेट थमा देता है. आदिवासी खुश हो जाते हैं. उन्हें महीने भर का नमक मिल जाता है, दुकानदार रमिया की माँ से अगली बार गोंद लाने को बोल रहा है. गोंद भी लाल और सफ़ेद दो रंगों के हैं, पर भाव दोनों के बराबर ही है यहाँ. एक डिब्बा गोंद के बदले उसे दो डिब्बा सरकारी चावल मिलेगा. सो वह अगले हप्ते से गोंद जुटाने में लगी है. रमिया का बाप अब लकड़ी के खिलौने बनाना चाहता है, पर उसे बेचने की समस्या है. उसे बस बस्तरिया भाषा आती है.

दशहरा मेले में बस्तरिया लोग लकड़ी के सामान खूब बेचते हैं. लेकिन पर्यटक लोग उन्हें सस्ते में खरीदने के लिए मजबूर कर देते हैं. कहते हैं कि इस बार का मेला फीका रहेगा, क्योंकि नक्सलियों ने एलान कर दिया है कि मेले में पुलिस के जवान नहीं दिखने चाहिए, वरना गोली चलेगी. उन्हें पुलिस से चिढ है. जबसे ग्रामीणों ने ‘सलवा जुडूम’ शुरू किया है, ग्रामीणों से भी वे चिढ़ने लगे हैं. नई उम्र के लड़के इस आंदोलन से जुड़कर नक्सलियों का विरोध करने लगे है. पुलिस उन्हें हथियार चलाना सीखा रही है. वे नक्सलियों का विरोध करने लगे है. पर डरे-डरे रहते है. पिछले दिनों गांव में घुसकर दो लोगों को मार डाले थे नक्सलाइट लोग.

इस बार के इलेक्शन में पूरा जंगल मलेटरी के जवानों के कब्जे में है. कहते हैं कि इस बार यूपी और बिहार के मलेटरी जवान आये हैं, सबके सब छह फुट से कम ऊँचे नहीं हैं. पत्थर जैसा देह है और तरुवार जैसी मूंछ . दिनरात उनके चलने की आवाज आती रहती है—कड़क-कड़क. पुराने मास्टर जी बताते हैं कि रमिया की बड़ी बहन अपनी मौसी के घर रायपुर में रहकर पढाई कर रही है. यहाँ कभी-कभी आती है. उसे नक्सलाइट लोग से बहुत डर लगता है, इसलिए गांव में नहीं रहती है. रमिया बताती है कि उसकी बहन मास्टरनी बनना चाहती है. फिर रमिया को पढ़ने के लिए गांव से दूर किसी बड़े शहर में ले जाएगी.

डॉ शंकर मुनि राय
विभागाध्यक्ष -हिंदी
शासकीय दिग्विजय स्नातकोत्तर महाविद्यालय राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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