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सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है,राहुल सांकृत्यायन

सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है,राहुल सांकृत्यायन
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास पुरुष ओर अमर विभूतियों में गिना जाता है
9 अप्रैल 1893 को ग्राम
पन्दहा, जनपद-आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश,भारत में जन्मे बहुभाषाविद्,अग्रणी विचारक, साम्यवादी चिन्तक,यात्राकार, इतिहासविद्,तत्त्वान्वेषी, युगपरिवर्तक,साहित्यकार
राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे।बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है,ऐसा उनका मानना था।वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।
ग्यारह वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को नकारकर वे बता चुके थे कि उनके अंतःकरण में कहीं न कहीं विद्रोह के बीजों का वपन हुआ है।यायावरी और विद्रोह ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कालांतर में विकसित हो गईं, जिसके कारण पंदहा गाँव, आजमगढ़ में जन्मा यह केदारनाथ पांडेय नामक बालक देशभर में महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रख्यात हो गया।
राहुल जी वास्तव के ज्ञान के लिए गहरे असंतोष में थे,इसी असंतोष को पूरा करने के लिए वे हमेशा तत्पर रहे।उन्होंने हिन्दी साहित्य को विपुल भण्डार दिया।उन्होंने हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी उन्होंने शोध कार्य किये।राहुल जी की प्रतिभा बहुमुखी थी और वे संपन्न विचारक थे।
धर्म,दर्शन,लोकसाहित्य,
यात्रासहित्य, इतिहास, राजनीति,जीवनी,कोष,प्राचीन ग्रंथों का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया।उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है।यह केवल राहुल जी ही थे, जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया।उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं।तिब्बत और चीन के यात्रा काल में उन्होंने हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया,ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में है।यात्रा साहित्य में महत्वपूर्ण लेखक राहुल जी रहे है।उनके यात्रा वृतांत में यात्रा में आने वाली कठिनाइयों के साथ उस जगह की प्राकृतिक सम्पदा,उसका आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन और इतिहास अन्वेषण का तत्व समाहित होता है। “किन्नर देश की ओर”, “कुमाऊ”, “दार्जिलिंग परिचय” तथा “यात्रा के पन्ने” उनके ऐसे ही ग्रन्थ हैं। उनकी किताब
वोल्गा से गंगा की आखिरी पंक्ति है कि हमारे प्राचीन ग्रंथ और उसके रचयिता ॠषि-महर्षि श्री राहुल की गवाही दे रहे हैं –अरे ? ठीक तो कहता है । *”सत्य से बढ़कर धर्म नहीं।”*
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- “कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।” राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा।वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया।उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है।वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उनपर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए।बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया।सन् १९४७ में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया,वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था।नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा,पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले।इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे।इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आकलन करके ही लागू करने पर जोर दिया।अपनी पुस्तक *‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’* में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक् प्रकाश डाला।अन्तत: सन् १९५३-५४ के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।
एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई।सन् १९४० के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली।१९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया।ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया।इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था।राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया।अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् १९४० में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे।प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे।इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।
राहुल सांकृत्यायन कहते हैं
*मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में,सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से।प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है,क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़–फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया।जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं।आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की,बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी।लेकिन,क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था,यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता।आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था।एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन,भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है,लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।*
राष्ट्र के लिए एक राष्ट्र भाषा के वे प्रबल हिमायती थे।बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है,ऐसा उनका मानना था।वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।
सैर कर दुनिया की गालिब , जिन्दगानी फिर कहाँ? जिन्दगानी अगर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ?
लेखक:-रामाश्रय यादव राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद जनपद पंचायत के अध्यक्ष हैं

 

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