निर्लज्ज बेरोज़गारी
खाली पड़ी ज़ैब से सपने भी खाली आते है,
बेकारी की गाली खाते को, अपने भी गाली दे जाते हैं।
सारे रिश्ते-नाते बेगाने से मुँह तकते रहते,
गुनाहगार की तरह, ‘रोज़गार का प्रश्नचिह्न’ लगाते हैं।
अपने ही घर में परिवार का कलंक कहलाकर,
माँ-बाप के टुकड़ों पर पलने वाले ‘नाकारा’ कहलाते हैं।
निर्लज्जता भी गली-मोहल्ले में हँसी उड़ाती,
बातों ही बातों में ‘रोज़गार की खिल्ली’ बन जाते हैं।
दृढ़-निश्चय का प्रण लेकर कितना उछले कोई ?
रोज़गार भी ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ जितने पाते हैं।
नाम बदलकर सरकारें आती-जाती रहती,
रोज़गार के वादे होते; लेकिन, वादे कौन निभाते हैं ?
बेकारी का सारा दोष, बेरोज़गार पे लादा जाता,
रोज़गार से तुलना कर-कर उसको दोषी ठहराते हैं।
उसकी मजबूरी को सुनने वाला कोई होता नहीं,
उत्तर में उसको ही सारे मिलकर अपराधी बताते हैं।
सरकारों की नाकामी युवाओं पर थोपी जाती,
अपने ही घर में युवा घर का बोझ बनकर रह जाते हैं।
अवसर दे सरकारें रोज़गार के बेहतर सबको,
देश के युवा इस ‘बेकारी की गाली’ से अब मुक्ति चाहते हैं।
अनिल कुमार केसरी,
भारतीय राजस्थानी।
वरिष्ठ अध्यापक ‘हिंदी’
ग्राम देई, जिला बूंदी, राजस्थान।