आज फिर रावण मारा जायेगा
आज फिर रावण मारा जायेगा
मुझे गंभीर मुद्रा में देख पत्नी ने कहा —
क्या हुआ जी,
आपसे कुछ कहा जायेगा।
मैने कहा – भाग्यवान,
आज फिर रावण मारा जायेगा।
पत्नी ने कहा-
क्या कहा, आज फिर रावण मारा जायेगा,
पिछले बरस तो मारा गया था,
बदले में हमने बच्चों को फुग्गा दिलवाया था।
मैने कहा-
यही गंभीर मामला है,
यह किस्सा चलता रहेगा,
हर बरस रावण सीना ताने खड़ा मैदान में मिलता रहेगा।
और राम बन कोई तीरधनुष लिये उसे निशाना बनाता रहेगा,
और फिर कश्मोकश से रावण मरता रहेगा।
पत्नी ने कहा – सुनो जी,
इसका स्थायी हल नहीं है,
हर समय रावण को मार देने इस धरा पर क्या कोई काबिल नहीं है ?
मैने कहा- अरे भाग्यवान ऐसा हो जाता,
तो क्या मै सारे तीर्थ न कर आता।
देखा था नहीं,
बच्चों को पढ़ाने डोनेशन देना पड़ता है,
जब बच्चे पढ़ लिख कर काबिल हो जाये,
तो उन्हें नौकरी दिलवाने मोटी रकम रखना पड़ता है।
किसी निर्माण कार्य में नेता गण कमीशन खोरी करते हैं,
करोड़ो रूपये में बेहतर बनने
वाली राह को चंद रूपयों में बना घटिया कर देते हैं।
हर जगह भ्रष्टाचार का बाजार सजा है,
सती सीता मैया को किस तरह से,
आज के रावण ने हरा है।
यह सब देख सोच मन मचलता है,
देखो न आज भी रावण जलता है।
पत्नी ने कहा –
जब यह सब अनर्थ जारी है,
फिर रावण जलाने की क्यों तैयारी है।
मैने कहा –
भाग्यवान यह जनता है,
दांत पीस पीस कर रहती है,
पर गलत कर्मो को देख भी चुप्पी साधती है।
बरस भर के गुस्से को,
इस अग्निकुंड में स्वाहा करती है।
यह पुतला रावण का बना,
फिर इसे जला,
अपना गुस्सा दफन करती है।
पत्नी ने कहा –
बात सच कहते हो,
तो क्या जो बने हालात है,
उस पर कविता लिखते हो।
मैने कहा –
मैने त्रेता से कलयुग तक,
रावण को मरते जलते देखा है,
बहुत अधिक समझा बूझा है।
एक ही उपाय नजर आता है,
सोचता हूँ,
त्रेता में जब श्रीराम थे,
अपना राजपाठ, सिंहासन त्यागा था,
अहिल्या को तारा था,
अनेकों ऋषि मुनियों का उद्धार किया था,
आसुरी शक्तियों का संहार किया था।
राम जब स्वर्ण मृग को पाने दौड़े थे,
तब ही जीवन में अपने वे हारे थे।
श्रीराम ने अपने आदर्शो को जब ऊँचा पाया था,
सहज, विनम्र बन धर्म को अपनाया था,
तब कहीं आततायी रावण को मार पाया था।
वह युग का अंत हो गया है,
अब तो कलयुग आ गया है।
जब इस युग में भी कोई,
श्रीराम बनने का जोखिम लेगा,
तब कहीं जाकर रावण मारा जायेगा।
मेरी गंभीर बनी मुद्रा को पत्नी समझ चुकी थी,
और एक हाथ मुख पर रख,
अपनी हँसी छुपाती जा चुकी थी।
संतोष श्रीवास्तव ‘ सम’
कांकेर छत्तीसगढ़