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वही हिंदी लाया हूँ

वही हिंदी लाया हूँ
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वही हिंदी लाया हूंँ,
जो वर्षों मेरे साथ रही,
मैं जहांँ भी चला चली वहीं,
मैं जहांँ पे ठहरा थी ठहरी।
वही हिंदी लाया हूँ,
जो वर्षों मेरे साथ रही।

जिसकी उंँगुली पकड़ के मैंने,
नित बढ़ना सीखा है,
जिसके ही द्वारा अपने,
शब्दों को गढ़ना सीखा है।

वह कर्ज भला कैसे उतरे,
जो हर पल मुझ पर यहांँ चढ़ी।
मैं जहांँ भी चला चली वहीं,
मैं जहांँ पे ठहरा, थी ठहरी।

जब पाया शोषित पीड़ित तो,
इक कंपन सा हृदय हुआ,
जो दास्ता का सूरज डूबा,
आखिर फिर क्यों उदय हुआ।

छाया है साम्राज्य विदेशी,
देसी भाषा दिखे नहीं।
मैं जहांँ भी चला चली वहीं,
मैं जहांँ पे ठहरा थी ठहरी।

निज भाषा के गौरव को ले,
मुझको बस बढ़ना ही होगा,
कैसी भी विपत यहांँ पड़ी हो,
मोम की भांँति गलना होगा।

तब जाकर दुनियाँ में यह,
जगह बना पायेगी कही।
मैं जहांँ जहाँ भी चला चली वहीं,
मै जहाँ पे ठहरा थी ठहरी।

तुम क्या जानो क्या रिश्ता है,
मेरी अपनी हिंदी से,
मैं बेटा तो यह जननी है,
पाया है जीवन हिंदी से।

मेरे भावों को समझो तुम,
जो मैंने सम्मुख तुम्हें कहीं।
मैं जहांँ भी चला चली वहीं,
मैं जहांँ पे ठहरा थी ठहरी।

वही हिंदी लाया हूंँ,
जो वर्षों मेरे साथ रही,
मै जहाँ भी चला चली वहीं,
मैं जहाँ पे ठहरा थी ठहरी।

— संतोष श्रीवास्तव “सम”
कांकेर छत्तीसगढ़।

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