लघुकथा: उपहार
लघुकथा: उपहार
आज आपको क्या हो गया है? आपको तो बारिश से, सड़क किनारे बिकती खाने-पीने की चीजों से बहुत चिढ़ थी। गाड़ी से नीचे उतरना आपको अपनी शान के खिलाफ लगता था। आज आप मेरा हाथ थाम कर पैदल चल रहे हैं। बारिश में भीग रहे हैं। गर्म सिंकते भुट्टे, भेलपुरी खा रहे हैं। मुझे डर लग रहा है। आपकी तबीयत तो ठीक है। ‘आशा जी की आँखें विस्मय एवं अंजानी आशंका से भरी हुई थीं।’
‘मुझे कुछ नहीं हुआ बल्कि तबीयत तो मेरी अब ठीक हुई है। आशा! मैं हमेशा सोचता था कि महिलाएँ सिर्फ महंगी चीजों,जेवरों, साड़ियों से ही खुश होती हैं इसलिए मैं लगातार काम करता रहा ताकि तुम्हें महंगे से महंगे उपहार दे सकूँ पर जब तुम्हारी डायरी पढ़ी तो पाया कि एक पत्नी चाहती है, अपने पति का प्रेम, कुछ वक्त और सानिध्य। तुम्हारी इन छोटी-छोटी खुशियों के बारे में कभी सोचा ही नहीं। तुम्हारी पसंद- नापसंद जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। जन्मदिन बहुत मुबारक हो मेरी जान।’ मोहन जी एक लाल गुलाब और एक डब्बा आशाजी को पकड़ाते हुए बोले।
“माउथ ऑर्गन!’आशा जी की आँखें छलछला गईं।
‘ हाँ! तुम्हारा उपहार। तुम हमेशा से माउथ ऑर्गन बजाना चाहती थी न।” आशा जी से गुलाब लेकर मोहन जी ने उनके जूड़े में लगा दिया।
‘यह मेरे जीवन का सबसे अनमोल उपहार है।” सड़क पर आते-जाते लोगों की परवाह किए बगैर आशा जी का सिर मोहन जी के सीने पर टिक गया और होंठ माउथ ऑर्गन पर।
एक मीठी सी धुन बजने लगी..
‘जब कोई बात बिगड़ जाए’
‘जब कोई मुश्किल पड़ जाए’
‘तुम देना साथ मेरा’
‘ओ हमनवाज़’
डॉ ऋतु अग्रवाल
मेरठ, उत्तर प्रदेश