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“वह स्त्री कौन थी?”

“वह स्त्री कौन थी?”

दिन का अवसान निकट था। कार्तिक मास की सांझ आसमान में बादलों की विविध आकृतियां निर्मित कर रहा था । सरिता का प्रवाहित जल चट्टानों से टकराकर नाद करता। तट बरसाती पौधों की नई कौम से आच्छादित थे। उन पर कुछ पुष्पित पौधे प्रकृति में चार चांद लगा रहे थे।
प्रकृति की इस नीरवता में एक युवक तट पर खड़ा जिसका यहां से बालपन का नाता था। वह जलवायु गगन फूल पत्ते सभी को जैसे चिर परिचित अंदाज में निहार रहा था। अलबत्ता भद्र पुरुष जाने कितने देशों की खाक छान चुका किंतु यहां सा प्रेम वात्सल ममत्व उसे और कहां? यह जगह उसे इसलिए भी प्रिय है कि यही कहीं उसकी बूढ़ी दादी का पंच तत्व शरीर विलीन हुआ था, अंत्येष्टि की गई थी। अलबत्ता दादी को खोने जैसी बातों से युवक को ज्यादा सरोकार नहीं नहीं था क्योंकि वह तो आज भी प्रकृति के नाद में दादी के वात्सल सुरों को सुन लेता। हवाओं के शीतल थपेड़ों से थपकियां पा लेता। रेत की गुदगुदी नरमा हट
में प्रेम स्पंदन पा लेता। यहां के सारे बूढ़े वृक्ष उसके प्रेमाभिनंदन के साक्षी ही थे।
युवक कुछ उधेड़बुन में डूबा उस चट्टान पर बैठ जाता है जिसे सरिता का जल चारों ओर से घेरे था। तभी वातावरण की नीरवता को तोड़ता हुआ कोहा का वृक्ष दिवाकर की अंतिम किरणों में अठखेलियां खेलता इठलाता कहता है_” बहुत रोज बाद पधारे मित्र?”
चिड़िया चहकी तो कोयल भी कुकी सरिता का जल झिलमिला कर बोला_ “बेचारा बहुत वक्त बाद आया है, फिर बहुत थका मादा भी लग रहा है तनिक उसे सुस्ताने भी दो।”
जंगली ककड़ी ठोस तने से लिपटी,अंगड़ाई भर कर कहने लगी_”पहले बेचारे को मेरे नन्हे फल का रसास्वादन तो कर लेने दो?”
सरिता के जल का तल कुछ उछला,तो पदो को शीतलता से सहलाने लगा। नन्ही गौरैया पास आकर ची_ची कर_”बहुत वक्त बीते मित्र!तुम्हारी प्रतीक्षा में आंखें तरस गई थी?”
किंतु मेंढक की टर टर वैसी की वैसी थी,_”मित्र क्या तुम्हें हमारी याद नहीं आई? “और बूढ़े कौहा का प्रश्न अभी जस का तस था। जैसे वह कोई अनबुझी पहेली को बुझना चाहता था ।कहने लगा_ “क्या कहानी है मित्र!उसे तुम हमसे कहो।”
युवक थोड़ा सहमा सकुचाया कहने लगा_” ऐसी कोई बात तो नहीं।”
अबकी कौहा तुनककर अपनी कर्कश आवाज में_ “लेखक हो ना। फिर भी सच से परहेज?
लेखक के नेत्र सजल हो गए ।अश्रु धारा कपोलों पर उभर आई।
पतंगा, चिडडा, तितली एक स्वर में_ “रुला दिया ना मित्र को?”
बूढ़ा कोहा सख्त हो_” रोने दो उसे, रोएगा नहीं तो उसका दर्द नासूर बन जाएगा?”
अबकी लेखक के अश्रु का बांध टूट पड़ा। सिसकियां भर कहने लगा_” हां,हां!मैं तुम सब के वात्सल्य को भुलाकर किसी और के प्रेम में पड़ गया था।”
वही तो पूछ रहे हैं। प्रेम संसारी था ना, तभी आंसू दे गया।”कोहै ने हुक देकर अपनी बात पूरी की।
लेखक कहने लगा_”हां हां ! अवश्य संसारी था। मगर प्रथम दृष्टाव मैं बड़ा आकर्षक प्रतीत हुआ। उसके आडंबर,भूल भुलैया में कोई भी आकर्षित हो सकता था। सो मैं भी खो गया।”
कोहा जैसे भेद उजागर करता बोला -“खुल कर कहो मित्र!वह स्त्री कौन थी?
तुम्हें कैसे पता चला_ “वो स्त्री थी?” कुतूहल और अचरज भरकर लेखक पूछने लगा। तब कोहा किसी दार्शनिक की भांति -“वह सब बातें छोड़ो तुम!यह स्त्री ही युगो_युगो से माया के अनेकों रूप धरकर प्रकृति पुरुष को छलती आई है।”
तो सुनो,कह लेखक कुछ गमगीन हो बोला _”एक बरस पहले की बात है, मैं तुम्हारी इसी घनी छांव तले प्रकृति के नृत्य में आल्हादित था, कि व्हाट्सएप पर कीटर फिटर करने को मन करा और मैंने तुम्हारी जमीन पर उभरी मोटी जड़ों पर सेल्फी लेकर स्टेटस में पोस्ट कर दी। तुरंत किसी परिचित आकर्षक देवी उत्तर में लिखा_”इतनी मायूसी भला क्यों? एकांत में बैठे हो?”
मैं बोला_”एकांत कहा ? सारी प्रकृति तो मेरे साथ वार्तालाप कर रही है। क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता?” वह बोली _”नहीं तो?”
बस उस रोज से उससे बातों का सिलसिला चल पड़ा। मैं मोहनी को नित्य सुप्रभात लिखता। वह भी उतने प्रेम से जवाब देती। शनेः शनेः वह दिनचर्या में शामिल हो गई। कभी कभार उसके सोपे गए छोटे बड़े काम भी मैं कर दिया करता। तो कभी उसकी सुरीली आवाज में खो जाता ।प्रेम स्पंदन की प्यास नित्य बढ़ती गई और उसने इतना अंतराल ही ना दिया कि मैं लेखनी को गति दे सकूं ।तुम मित्रों के पास लौट सकूं।”अपनी बात कह लेखक कुछ रुका तो कोहा बोला _”आगे कहो मित्र।”
हूं” कह लेखक पुनः अपनी दास्तां सुनाने को उन्मुख हुआ। “समय के साथ_साथ मित्रता में और प्रगाढ़ता आती गई ।हम दोनों एक दूजे के सपनों में खोते गए ।मिलन की माला में एक_एक मोती पिरोते गए। वह अपनी सी लगने लगी। तभी एक रोज वह अवसर भी आया की प्रिय से रूबरू हो उसे स्पर्श का सौभाग्य मिला। मेरे हस्त उसके नरम कपोलों को छूते हुए अधरों की और लालायित हुए, तो वह लाजनी की भांति सिमट गई।उसने संकोच से आच्छादित आवरण का वरण कर लिया और वह स्त्री की पूर्णता को सुशोभित कर चुकी थी ।उसके सत्कार मैं इतना आग्रह आदर था,जैसे मुझे अपनी स्वर्गवासी दादी के हृदय से निकलती ममता की धारा लगी। उनके सानिध्य मैं प्रकृति के प्रेम सा लयबद्ध अविराम राग था।”
फिर कोहा हुका देकर पूछने लगा।_”आगे कहो मित्र।”
“फिर क्या दूरियां और भी कम हुई तो प्रेम चरमोत्कर्ष को लालायित हो चला। सांसों में शनें शनें साम्यता घूलने लगी। दो जिस्म जैसे एकाकार हो गए। आनंद वर्षा में दोनों तन मन मुक्त हो चले। दुनिया इन बातों से बेखबर थी किंतु दोनों की खुशियां छुपाये न छुप रही थी। ईश्वरी प्रेमानंद का अमूल्य पुष्प कहीं पल्लवित हो चुका था।”

कह लेखक ने एक लंबी आह भरी। तो बूढ़ा कोहा व्यंगात्मक स्वर में हंसा_ “तभी हमारी याद ना आई ।आगे कहो मित्र, तुम्हारी कहानी अत्यंत रोचक है।”
“आगे बहुत वक्त बस यूं ही लुका छुपी का खेल चलता रहा, कि एक रोज हमारी प्रेम कथा में पर पुरुष का पदा दर्पण हो गया।”
आवाज में भारीपन लिए लेखक आगे कहने लगा_” वह पुरुष का व्यक्तित्व मुझसे बृहद था। शायद वह मुझसे ज्यादा सुंदर भी ,या कहे स्त्री मुझसे उब चुकी थी ? बात जो भी हो पर,परपुरुष का उसे संदेश जरिए ही सही प्रेमालाप मेरे तन बदन में आग लगा देता ।स्त्री द्वारा भी परपुरुष के शौर्य वर्णन मेरी सहनशीलता की परीक्षा की पराकाष्ठा थी। सने सने मुझे भी लगने लगा,स्त्री का मन मेरी ओर से उचट गया है, किंतु हां! मेरे प्रतिकार में वह अवश्य कहा करती _”तुमसा दूसरा कोई नहीं! तुम्हारा स्थान मेरी जिंदगी में सर्वोपरि है।”
“किंतु मित्रों !उस स्त्री की कथनी और करनी में अंतर प्रतीत होता। पवित्र प्रेम में जैसे कपट संदेह ने घर कर लिया था।”

अब जब भी कभी परपुरुष की बात उसके मुख से मैं सुनता, पागलों की भांति व्यवहार करने लगता। एक दो दफा तो मैं क्रोधित हो उससे कह भी चुका था_” तुम मेरी दुनिया से दूर हो जाओ।”तब स्त्री साफगोई में कहती _”क्या तुम मुझ पर संदेह करते हो?”
मेरा क्रोध इन बातों से भी शांत ना होता और मैं बोलता _”वह तुम्हारी जिंदगी में रहेगा या मैं?तुम्हें दोनों में से किसी एक को चुनना होगा? मैं इतने बड़े दिल का नहीं हूं कि तुम्हारे दिल के किसी कोने में और किसी को बर्दाश्त कर सकूं।”
तब स्त्री रूठ कर कहने लगी _”वह और तुम मेरे लिए बराबर हो ।मैं उसे भी नहीं छोड़ सकती और तुम्हें भी।” यह वाक्य मेरे कोमल प्रेम पर कुठाराघात था और अचानक लेखक ने वातावरण की नीरवता से अपने आप को जोड़ लिया। तब कोहा पुनः बोला_ “आगे कहो मित्र क्या हुआ?”
परपुरुष भी उससे प्रेम का मुझसे दावा करने लगा और स्त्री अपने सौंदर्य के अभिमान पर इतराने लगी। अपने मॉडर्न होने की दलील पेश करती रही और वह मुझे पुराने ख्यालात का आदमी साबित करती रही।
मैं प्रेम को किसी वस्तु की भांति जीतकर नहीं पाना चाहता था। ह्रदय वेदना से भरा तो जिरह की शक्ति जाती रही। स्त्री के प्रेमालाप के बावजूद आत्मा उसे स्वीकार ना कर सकी। मैं विषाद_अवसाद के बीच दोलन करने लगा। प्रतीत होता दुनिया फरेब से भरी है और मैं सारे बखेड़े से एक झटके में नाता तोड़,मित्र तुम लोगों के पास आ गया।”
बूढ़ा कोहा हंसा, तो मोर, हंस, गौरैया, कबूतर, चीढढा एक स्वर में बोले _”मित्र के दुख पर भी कोहा दादा तुम हंसते हो?”
कोहा तसल्ली से बोला _”अधीर क्यों होते हो। यही तो अंत निश्चित था मित्र की प्रेम कथा का। फिर तुम क्यों दुखी होते हो लेखक महोदय! ध्यान से चारों तरफ देखो, हम सभी आज भी तुम्हारे स्वागत को आतुर है। तुम पहले भी हमारे अभिन्न अंग थे और आज भी ।तुम स्वयं माया के चक्कर में फस कर हमारे निश्चल प्रेम को भूल गए थे और जब सुबह का भूला शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते।”
कोहा खुशी के अश्रु छलकाते हुए आगे बोला_” आओ मित्र !मेरी डालियों रूपी बाहों में लटक जाओ। मैं तुम्हारे आलिंगन को लालायित हूं। मेरा तना रूपी रुग्ण ह्रदय, प्रेम स्पंदन के लिए आतुर है। पत्तों की सरसराहट में अपने स्वागत की गीत को ध्यान से सुनो। डालियों में झूल जाओ। सारा संसार तपन,संताप,उलझनों से भरा क्षणभंगुर है। वही प्रकृति नित्य अमिट आनंदाई है ।फिर तुम्हारे जैसे सहृदय को संसार कभी रास ना आएगा।”कह कोहा ने अपनी बात खत्म की ,तो सांझ का पारंपरिक प्राकृतिक नृत्य प्रारंभ हो गया। सरिता का जल उछल_उछल कर पगो का आलिंगन करने लगा। मछलियां पुलकित हो नाच उठी। भंवरे गुनगुनाने लगे। धरा सौभाग्य से सुशोभित हो गई ।तभी लेखक अनायास ही चिल्ला उठा_” हां हां! प्रकृति तुम सत्य हो, मैं तुम्हारा ही अंश हूं; और कोई अपने परिवार से बिछड़कर कैसे प्रफुल्लित रह सकता है ?प्रकृति तुम मेरी ऊर्जा, प्रेम, राग, गीत ,गति, जीत हो और मैं फिर कभी नहीं जानना चाहूंगा _’वह स्त्री कौन थी?’

अजय कुमार बोपचे

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