जन-गीत
जन-गीत
क्या सूरत देखो तो,इस जन गण मन की है!
जैसे अपनी मां से , बिछुड़े बचपन की है।।
ओ! जननायक मेरे , कुछ इसकी भी सुनले
इस ताने-बाने को , अब तो ढंग से बुनले
है गीत भले मेरा , पर धुन जन-जन की है।
अरे धन के लिए भी तो,जरूरत निर्धन की है।।
ये पेट की आंतों में , धंसती हुई तलवारें
घुटने ऊपर रखकर , हंसती हुई सरकारें
हैं आहें पर्वत सी , नदिया अंसुअन की है।
‘होरी’की घुटन की है,’धनिया’ के रुदन की है।।
पिंजरे में आज़ादी , क्या खूब मेरे आका
क्या खींचा है तुमने , इस जीवन का ख़ाका
ना कोई व्यथा इसमें , गोदान गब़न की है।
ना कोई कथा इसमें , अलगू- जुम्मन की है।।
सदियों से चली आई , सदियों तक जाएगी
अलगाव की ये खाई , कितनों को खाएगी
तब भी अनबन की थी,अब भी अनबन की है।
सुलझन की नहीं जितनी,उतनी उलझन की है।।
ये ‘धर्म’ दुकानों के , कब अपना असर छोड़े
इनसे कब पूछोगे , कितनों के घर तोड़े
अमृत की चाहत में , विष के मंथन की है।
क्या अमृत निकलेगा , हद पागलपन की है!!
इसको भी ज़रूरत है, उसको भी ज़रूरत है
औरत का ज़िस्म कहां अब ज़िस्म ही औरत है
हर पल जिसके पीछे , नीयत रावण की है।
लाचार अपाहिज़ सी , रेखा लक्ष्मण की है।।
हर काग़ज पर तुमने , जिसका उद्धार लिखा
सपनों में सही तुमको , वह कितनी बार दिखा
बस ‘दौड़’ है कुर्सी की , जितनी शासन की है।
कुछ तो हरिजन की है , बाकी परिजन की है।।
ग़र तुम यह कहते हो , हक सबको बराबर है
तो मैं यह कहता हूं , ये झूठ सरासर है
सौ में से दस थाली , छप्पन व्यंजन की है।
और शेष बची खाली , इनकी खुरचन की है।।
क्या अर्थ भगतसिंह के , फांसी पर चढ़ने का
क्या अर्थ शहीदों के , इतिहास को गढ़ने का
माना कि ये आंधी , एक परिवर्तन की है।
पर बात कहां इसमें , खाली बर्तन की है?
बस दौलत के बल पर,यहां सब कुछ चलता है
‘अपराध’ अदालत से , बेख़ौफ निकलता है
किस राह चलें आखिर , हर राह पतन की है।
आज़ाद हुआ तो क्या , हालत ये वत़न की है।।
-विजय विश्वकर्मा
जबलपुर